पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/४३०

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किफायत किमारवाजी किफायत- सझा जी० [५० किफायत] १ काफी या अनम् होने का किंवलिनुमा-सा पुं० [अ० किवन, + फ़ा० नुमा] दे० 'किवानुमा' भाय । २. कमखच । थोड़े से काम चलाने की प्रिया । जैसे- उ०-उनकै नेत्र शिविलनुमा की मांति मेरे ही ऊपर छा खर्च में किफायत को 1 ३. बचन । जैसे-ऐसी करने से गए ।-श्यामा० १० १२३ ।। ५०) की किफायत होगी।४ कम दाम । थोडा मूल्य । किबो-क्रि० स० [हिं०] करना । चना । उ०---तन कियो सिस्टी । जैसे---अगर किफायत में मिले तो हम यही कपडा ले लें । | की। करता, देपत जगत भुलाना।--रामनद०,१० ३५ ।। यौ॰—किफायत फा-थोड़े दाम का । सस्तो। किन्—सा पुं० [अ०] १. महत्व । २ बड़प्पन । उ०—तो कबीर। किफायती - वि० [q० किफायत] कम खर्च करनेवाला । स मलिकर उसे कहते हैं जिसमें किन्न (गौरव) होव -कवीर म०, | खर्च करनेवाला । पृ० ४२० । २ घभिमान । गर्व । उ०—होर इबादत में किवर -सञ्ज्ञा पुं० [अ० कित्र = घडाई, श्रेष्ठता १ बड़प्पन । काहिल बम्शता है होर किन वे कीना, बुग्ज व हिर्स, हुवा । उच्चता । २ गर्व । उ०-न माने प्यास होर भूख नाले के सुई व वखोली व तु बी व शाहवत यो तमाम फेन नफा अम्मा के दु म्छ । किवर हौर कीना जर पाक इसते सीना -दक्खिनी०, हैं ---दक्खनी॰, पृ० ३६६ । पृ० ५२ ।। कित्रिया-सुज्ञा स्त्री० [अ० फियियह.] १. महुती । वडप्पन । उ०- किवरिया-सा पुं० [अ० किब्रियह] १. वहप्पन | महत्व । २ तू है करतार किग्रिया वारी, तेरा है इम सब जगह जा ।- ईश्वर ! परमात्मा । उ०—इस आदत से नफश कुशो से हुए कवीर सा०, पृ० ६७६ । २ ईश्वर । परमात्मा । आरी, वैदगी दीदार न हो किवरिया वारी ।-कवीर मं०, 19 किलक्रि० वि० [अ०फल] पहने । पूर्व । उ०—मार कम से पृ० १६३ । किब नई सवा नौ० [अ० किलई] पश्चिम दिशा ।—(लश०) । कम अत्र के पीछे किसी नुकसान पर इतना ज न होगा । जितना चद साल किन हो सकता था |-- म० गो०, किंवलनुमा----सच्चा पुं० [अ० किंवलह, + फा० नुमा] दे० 'किबला- नुमा' । उ-सब ही तन समुहाति छन, चलति सुवन है। पीटि । बाही तन ठहराति यह किंवननुमा ल दीठि ।- किल ए हाजात-सज्ञा पुं० [अ० किला-ए-हाजत] इच्छा पूर्ण विहारी (शब्द॰) । करनेवाला । जरूरतों को पूरा करनेवाला व्यक्ति । उ० --दर किवला-सद्या पुं० [अ० फिचलह ] १. जिस मोर मुख करके मुसलमान उसका यकी फिनए हाजात है। रवाँ फ फि ना रोज ग्रौर रात लोग नग। ज पढ़ते या प्रार्थना करते हैं । पश्चिम दिशा । मक्का । है ।—दक्खिनी॰, पृ० २१३ ।। उ6--मन' करि मस्का किबला करि देही । वोलन हार परस किम्—वि०, सर्व [सं०] १ क्या ? २ कौन सा ? यो०--किमवि= कोई भी । फुछ भी । उ०—(क) ताते गुप्त गुरु एही ।-कवीर ग्र०, पृ० ३१५ । रह जग माहीं । हरि तजि किमपि प्रयोजन नाही ।—तुलसी यौ॰—किबरनुमा । ३ पूज्य व्यक्ति । ४ पिता । बाप । (शब्द०) (ख) अति हरख मन, तन पुन, लोवन सजने कई पुनि रमा। का देहु तोहि त्रिलोक मेह, कपि, किमपि नहि यौ---क्विनालम् । किवलाप्रलम--सा पु० [अ० किवलाप्रालम] १ सारा संसार । वाणी समा ।—तुलसी (शब्द॰) । जिसकी 51र्थना करे । इश्वर। ३ वादशाह । सम्राट् । राज।। किमखाव-सज्ञा पुं० [फा० फमख्वाब] एक कपडा । उ०—सो अमर किवलागाह, किलागाही-सरा पुं० [अ०] पिता । बाप । दिया तेरे अमल कू । किमबाव दिया जवून कमर के ।- किवलानुमा--सहा पुं० [अ० किबलह, +फा० नुमा] पश्चिम दिशा दक्खिनी॰, पृ० १७१ । को वतीनेवाला एक या जिसका व्यवहार जहाजो पर मल्लाह किमरिक-संज्ञा पुं० [अ० कैविक एक चिकना सफेद कपडा जो करते थे । नैनसुख की तरह होता है ।। विशेप- इम्में एक सुई ऐसी लगा देते थे जो पश्चिम ही की अोर । विशेष—यह पहने सन के सून का ही वनता या और रहती थी । आजकल के ध्रुवदर्शक यत्रो में पश्चिम को विशेष वडा ही मजवून होता था । अव कपास के सूत का भी बनने लगा है । रूप से निर्दिष्ट नहीं करते ।। किवाडिए-सल्ला श्री० [सं० कपाट या कपाटी, कपाटिका प्रा० कबाड] । किमछि--सञ्ज्ञा पुं० [सं० कपिकच्छु, हि० केवॉच] दे० 'केवॉच' । ६०'किवाड़' । उ०-सा धन ऊभी टेकि किवाड़ि। रतन कुडल किमाम--सच्चा पुं० [अ० किवाम शहद के समाने गाढ़ा किया है। सिर तिलक लीलाडू ।—बी० र सो, पु० ५४ ।। | शरबत । खमीर । जैसे--सुरती का किमाम । किवाडी--सहा जी० [हिं० क्विाड़ का जी०] किवा । किवा या किमार--सल्ला पुं० [अ० किनार] जुम्रा का खेल । द्यूतक्रीडा । | पल्ला । उ०—कोच की किबाड़ियों से ।—प्रेमघन॰, किमारखाना--सुद्धा पुं० [अ० किमार+फा० सानह ] वह घर जहाँ । | भा० २, पृ० १११ ।। लोग जुआ खेलते हैं । जुप्रघरे । किवारसा पुं० [स० कपाट, ना० फबल] दे० 'फिदा' । ३०-- किमारवाज--वि० [अ० किमार+फी० वाज ] जुम्रा । । फूलन के महान वने फूलन विताप तने, फलन छज्जे, झरोखा, किमारवाजी-सक्षा बी० [अ० किमार + फा० वाजी ] जुए फूलन फिवार हैं। नद० ग्न ० पृ० ३८० । का खेल । वर*फी० वाज ] जुम्रारी ।। रखिो, किमारवाजी-सहा र है। नद० ग्न ० पू० ३८,