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कर्ण के अंतर्द्वन्द्व का दस्तावेज है मनोज श्रीवास्तव का खण्ड काव्य 'सूर्यांश का प्रयाण'
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कर्ण के अंतर्द्वन्द्व का दस्तावेज है मनोज श्रीवास्तव का खण्ड काव्य 'सूर्यांश का प्रयाण'

'सूर्यांश का प्रयाण' पुस्तक में महाभारत के उस चरित्र का चित्त है जिसे इतिहास कर्ण के नाम से जानती है.
'सूर्यांश का प्रयाण' पुस्तक में महाभारत के उस चरित्र का चित्त है जिसे इतिहास कर्ण के नाम से जानती है.

महेश श्रीवास्तव हिंदी साहित्य और पत्रकारिता की दुनिया के सशक्त हस्ताक्षर हैं. आपके लिखित 'मध्य प्रदेश गान' को राज्य सरक ...अधिक पढ़ें

Book Review: जिस व्यक्ति का जीवन ही दुर्दान्त कविता की तरह रहा हो उस पर कविता लिखना निश्चय ही बड़े आंतरिक साहस, विलक्षण कौशल और गहरी संवेदना के बिना संभव नहीं है. ‘सूर्यांश का प्रयाण’ रचनात्मक चुनौती को स्वीकार करती एक ऐसी ही अप्रतिम कृति है. हिंदी के बहुमान्य पत्रकार और चिंतक महेश श्रीवास्तव की कलम से बहता आवेग इस पुस्तक के हर सफ़े पर एक प्रश्नाकुल विसंगत जीवन की त्रासद सचाइयों को उजागर करता है.

‘सूर्यांश का प्रयाण’ पुस्तक में महाभारत के उस चरित्र का चित्त है जिसे इतिहास कर्ण के नाम से जानती है. कुंती पुत्र. सूत पुत्र. दानवीर कर्ण. पाण्डव कुल के इस किरदार की कुंडली में नक्षत्रों का आकड़ा कुछ ऐसा रहा कि उसके हिस्से में छल, अपमान, उपेक्षा और पक्षपात ही आया. अपने तहस-नहस जीवन पर घिर आई सांझ पर ठिठका कर्ण बीते क्षणों का लेखा-जोखा लिए अपने संघर्ष को याद करता है- “युद्ध किसका और किससे/ जो लड़ा हो युद्ध ख़ुद से/ मृत्यु कैसे हो/ जिया हो मृत्यु को जीवन सुबह से”.

महेश श्रीवास्तव की कविता ऐसे अनेक पड़ावों से गुजरती कर्ण को एक मानवीय विमर्श में बदल देती है. यह विमर्श एक मनुष्य की जीवन गाथा से उभरता इतिहास, दर्शन, अध्यात्म, धर्म, नैतिकता और नियति से जुड़े अनेक प्रश्न उकेरता है. ये वे सवाल हैं, जो अतीत की खोह से ज़रूर निकले हैं लेकिन आज भी उत्तरों की तलाश में भटक रहे हैं. यहां महेश श्रीवास्तव की काव्य मेधा को साधुवाद दिया जाना चाहिए. महज़ शब्द, लय, यति, गति और आलंकारिक छंद की निर्दोष रचना के लिए नहीं, उनके उस उर्वर मानस के लिए भी जो कविता को मनुष्यता के महान उद्घोष में बदल देता है. जीवन के रंग महल में गूंजती इन आवाज़ों में जाने कितने कर्ण अपनी कसक लिए अपने इंसाफ़ के मुंतज़िर हैं. ‘सूर्यांश का प्रयाण’ इसी अन्तर्द्वन्द्व का दस्तावेज़ है.

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प्रसंगवश यह जानना दिलचस्प है कि महेश श्रीवास्तव की प्रबुद्धता उनके वैचारिक ताप और उनकी सर्जनात्मक मेधा के केन्द्र में महाभारत जैसा महाकाव्य रहा है. पत्रकारिता की सघन सक्रियता के दौर में उनके संपादकीय आलेख और विशेष टिप्पणियां इसी महाभारत के संदर्भों, आख्यानों, उपाख्यानों और चरित्रों से अपनी वैचारिक चमक पाते रहे. लेकिन कर्ण की करूण-कातर पुकार उनकी आत्मा में इतनी गहरी उतरी कि जब-तब उन्हें बेचैन करती. अंतरमन में आवाज़ उठी कि घनीभूत वेदना से घिरे कर्ण की मनोदशा को कहानी-उपन्यास या निबंध नहीं, कविता में ही छुआ जा सकता है. यूं मन में उठी तरंगे कविता में आसरा पाती रहीं. अपने यक्ष प्रश्नों और दलीलों के साथ कर्ण का यह पुनर्जन्म था. कविता अपनी यात्रा में चलती और ठिठकती रही पर किरदार हमेशा महेश की रूह में जीवित रहा. मित्र-स्वजनों के आग्रह पर महेश ने कुछ बैठकों और गोष्ठियों में इसके पाठ भी किए. तब यह इसरार बना रहा कि इसे पुस्तकाकार प्रकाशित होना चाहिए …. और एक अंतराल के बाद भोपाल के इंदिरा पब्लिकेशन से यह किताब अपने अंजाम पर पहुंची.

यह सगर्व उल्लेख का विषय है कि महेश श्रीवास्तव उन बिरले अग्रणी अग्रजों और वरिष्ठ वरेण्यों की पीढ़ी में शुमार हैं जिन्होंने साहित्य की ज़मीन पर पत्रकारिता का बिरवा रोपा और आज यह पौधा छतनार वृक्ष का रूप धारण कर चुका है. महेश श्रीवास्तव ने कई अख़बारों को अपने संपादकीय श्रम और कौशल से सींचा. समझौतों की चौखट पर जिनकी निर्भीक कलम ने कभी दम नहीं तोड़ा. पत्रकारिता के समानांतर उनकी कविता-यात्रा भी जारी रही.

ग़ौर करने की बात ये कि तमाम रूतबे और कद-पद के बावजूद साहित्यिक स्थापना की छटपटाहट उनमें कभी न रहीं. उम्र के अस्सीवें दशक में इस किताब का शाया होना उनके धीरज और निस्पृह साहित्यिक निष्ठा को सुप्रमाणित करता है.

कर्ण का जीवन विसंगतियों का महाकाव्य है. पाण्डु पत्नी कुंती को दुर्वासा ऋषि ने वर दिया और उसके फलस्वरूप सूर्य से उत्पन्न पुत्र हुए- कर्ण. कुंती के कर्ण (कान) से वे पैदा हुए. इसलिए नाम हुआ- कर्ण. तेजोमय प्रतिभा स्वभाविक ही उसके अंग-प्रत्यंग में थी. प्रयाग में कर्ण ने सूर्य उपासना की. धनुर्विद्या में वे पारंगत थे. लेकिन दुर्भाग्य की मलिन छायाओं से पूरा जीवन आच्छादित रहा. कुंआरी कुंती ने लोक समाज के भय से कर्ण के पैदा होते ही एक पेटी में उसे बंद कर यमुना में प्रवाहित कर दिया था.

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कथा है कि अधिरथ ने नदी में बहते कर्ण को बचाया. इस तरह कर्ण को नया जीवन मिला. बाद की अनेक घटनाओं का विवरण महाभारत में मिलता है. जीवन के महाप्रयाण के अवसर पर कर्ण अपने इसी अतीत को याद करता है. सूर्य का यह अंश जीवन को अलविदा कहते हुए अपने प्रारब्ध और पुरूषार्थ के बीच ‘अपने होने’ का आकलन करता है. स्मृतियों में, अनसुनी अंतर्ध्वनियों में ख़ुद को पाने की चेष्टा ही इस कृति के ‘कर्ण’ का सच है.

बहरहाल, ‘सूर्यांश का प्रयाण’ पढ़ते हुए कर्ण का कुंती और द्रोपदी सहित ख़ुद से हुआ संवाद आसन्न मृत्यु के क्षणों में स्वयं को नीर-क्षीर देखने और अपने जिये-भोगे का तिल-तिल आकलन करने का अवकाश है. द्रोपदी के प्रति उसके मन में पीड़ा है कि उसने सूत पुत्र कहकर उसे अपने धनुष ‘कालपृष्ठ’ से मछली को निशाना न बनाने दिया. उसे अपराध बोध है कि भरी सभा में ‘चीर हरण’ के समय उसे चुप रहना पड़ा. यहां ये पंक्तियां सहसा ठिठकने पर विवश करती हैं- “करोड़ों बार जन्मे कर्ण/जन्मे और मर गए. अगर मां को मिले सुख और मां निर्दोष कहलाए”.

महेश श्रीवास्तव ने इस खण्डकाव्य की बुनावट में उस अखंड वैचारिक उष्मा को बचाए रखा है जहां मानवीय मूल्यों के पक्ष में एक सच्चे सर्जक की भूमिका को हम लक्ष्य कर सकते हैं. इस कृति की बुनियादी आभा उसकी संवाद शैली है. संवाद, जो कर्ण का खुद से है, अपने हिस्से में आए परिजनों से है. कविता का शिल्प सहज है जो पाठ के आरोह-अवरोह में लय-लीन करता अंततः कर्ण में विलीन कर देता है. कविता की जो बनक ‘सूर्यांश’ में हैं वह छपे शब्दों में होकर भी भारत की वाचिक परम्परा का परचम थामती यहां नमूदार है. शब्द, जो अपनी यात्रा में अनथक चल रहा है. लिहाज़ा उसका अपना एक जादुई असर है. इसे बांचते हुए लोक आख्यान के अनेक पारम्परिक कलारूपों की स्मृति कौंधती है. पंडवानी, भरथरी, आल्हा, माच, भांड पाथेर, नाचा जैसी जनपदीय विधाएं, जहां चरित गाथाओं और प्रसंगों को उपाख्यानों के साथ लोक समाज में संप्रेषित करने की परम्परा हैं. जाने कितने बिंब उभर आते हैं इस कृति के पारायण में.

‘कर्ण’ की आवृत्ति में घूमती यह कविता सोच के उस कपाट को भी खोलती है जहां पुरा कथाओं को बुजुर्गों के वाक्-विलास या सिर्फ़ बच्चों के लिए तिलिस्म का तड़का लगाकर परोस दिए गए मनोरंजन की चकाचौंध से परे जीवन के शाश्वत मूल्यों के जरूरी पाठ की तरह देखा जाना चाहिए. नई शिक्षा नीति भारत की जिस ज्ञान परम्परा की ओर पीढि़यों को लौटा लाने का आहृवान कर रही हैं उसके सूत्र ‘सूर्यांश’ में भी खोजे जा सकते हैं.

ऐसा नहीं कि साहित्य का आधुनिक परिसर महाभारत से महरूम है. शिवाजी सावंत के ‘मृत्युंजय’, धर्मवीर भारती के ‘अंधायुग’, दिनकर की ‘रश्मि रथी’ और दुष्यंत कुमार के ‘एक कंठ विषपायी’ में पाण्डवों की कालजयी कथा को विभिन्न प्रसंग-संदर्भों के साथ कहा-सुना जा चुका है. इस श्रृंखला में महेश श्रीवास्तव का यह सृजन इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि यह अपने सघन अर्थ और आशयों में भारत के अतीत, आज और आगत को एक डोर में बांधता है.

एक व्यक्ति के रूप में अवश्य ही कर्ण का प्रयाण हुआ पर वृत्ति के रूप में कर्ण आज भी कहीं जिंदा है.

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