मारण प्रयोग विधि
भगबान त्र्यम्बक महेश ने साधक शिबगिरि को शरीर रख्या तथा दुष्टों के बिनाश के लिए मारण प्रयोग विधि का उपदेश दिया । ये मारण प्रयोग विधि मंत्र संखिप्त रूप मे इस प्रकार हैं —
महादेब बोले — अब मारण प्रयोग कहता हुं जिससे कि मनुष्यों को तत्काल सिद्धि होगी । है मुने ! साबधान होकर तंत्र के मारण प्रयोगों को सुनो ।
बृथा, बिना अति दुष्कर परिस्थितियों में फंसे, चाहे जिसका मारण कभी न करना चाहिए । जिसे ऐश्वर्य की इछा हो ऐसे आदमी को जब प्राण संकट में हों, तभी इसका प्रयोग करना चाहिए ।
“सब संसार ब्रह्मारुप है”, यह ज्ञानरूपी नेत्रों से देखकर मारण प्रयोग करना चाहिए, नहीं तो दोष होता है ।
मूर्खो अज्ञान से प्रयोग करे तो बह प्रयोग उस प्रयोगकर्ता को ही नष्ट कर देता है, इसलिए मात्र अपनी रख्या करे और मारण प्रयोग जहाँ तक हो सके कभी न करे ।
यदि मारण करना ही एकमात्र साधन रह जाए तो दुष्ट के नाश के लिए मारण का प्रयोग इस प्रकार से करे- मंगल के दिन शत्रु ने जिस स्थान में अपना पैर रखा हो, बहाँ की धूल लाबे । उस मिट्टी में गोमुत्र मिलाकर शत्रु की मूर्ति बनाबे और नदी तीर पर एकान्त मे बेदी पर उसे स्थापित करे । उसकी छाती में अत्यन्त कठिन लोहे का त्रिशूल गाड दे और उसकी बाई और बलि देकर कालभेरब का प्रतिदिन पूजन करे ।
बहाँ ग्यारह बालकों को उत्त्म अन्न से भोजन कराये और उस मूर्ति के आगे सरसों के तेल का ऐसा दीपक जलाये जो दिन-रात जलता रहे । ब्याघ्रचर्म का आसन बिछाकर उसके दखिण की और बैठे और रात्रि को दखिण दिशा की और मुख करके साबधान होकर इस मंत्र को जपे ।
मारण प्रयोग विधि मंत्र : “ॐ नमो भगबते महाकालभैरबाय काकाग्नितेजसे अमुकं मे शत्रुं मारय मारय पोथय हुं फट् स्वाहा” ।।
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जय माँ कामाख्या