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सामुद्रिकशास्त्रम् ।


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भाषाटीकासहितम् ।

पादांगुलिलक्षण ।

अश्वत्थपत्रसदृशं विपुरं गुदमुत्तमम् ॥ पञ्चकोशमिदं श्रेष्ठं गुह्न चाहुर्मुनीश्वराः॥ १६३ ॥

विरलाश्चिपिटिकाः शुष्का लघवो वक्रः खटाः पदांगुळ्यः ॥ यस्य भवन्ति शिराळः स किंक रत्वं करोत्येव ॥ १६७ ॥

अर्थ-जिसकी गुदा घडा वह उत्तम पीपळके पत्तके सदृश हो जानने और कमलफूलके संपुटके आकार प्रतीत हो तो बहुत फड सुनीश्वरोंने कहा है ॥ १६३ ॥ अर्थ-जिस पुरुपके पांवकी अंगुठियां विरली, चिपटी, सूची, छोटी, टेडी, हलके आकार व नसें जिनमें निकली हवं यह दासभा चरणलक्षण निगूढगुल्फौ पतितौ पद्मकांतितलौ शुभौ। वको प्राप्त होता है अर्थात् दूसरेकी नौकरी करता है ॥ १६७॥ अस्वेदिनौ मृदुतळे मत्स्यांकमकांकितौ॥ ३६४ स्त्रीसंभोगनानत्यंगुष्ठदीर्घया प्रदेशिन्या ॥ प्रथममशुभं च गृहिणी मरणं वा ह्याच कलिम् १६८ हो और पसीना न आता हो, तथा चरणमें मछली और मकरके अर्थजिसके पांवके अंगुठेके पासी अंगुली अंगूठेसे बड़ी चिह्न हैं तो मनुष्यको शुभ फल प्राप्त होता है ॥ १६४ ॥ हो तो वह बीके साथ आनन्द करे और भोगविलास सुखको प्राप्त पदचरस्यापि । चरणतलं यस्य कोमलं तत्र इवे और जो अंगूठेसे छोटी होय तो प्रथम अशुभ फळ होवे अत्र पूर्णप्रस्फुटेर्मरेखास विश्वविश्वम्भराधीशः॥१६५॥ न्तर स्त्रीका मरण हो और कछह होवे ॥ १६८ ॥ अर्थ-यदि पांवसे चलनेवालेकाभी चरणतल (तलवा) कोमल आयतया मध्यमया कार्यविनाशो ह्या दुःखम् ॥ य और चरणतलपर पूर्ण ऊध्र्व (खडी) रेखा होय तो वह पुरुष घनया समया पुत्रोत्पत्तिः स्तोकं नृणामायुः ॥१६९॥ विश्व (पृथ्वीभर ) का स्वामी होता है । भावार्थ यह कि नरम च णतल शुभ होता है, कुछ नरम हो तो मध्यम, कडा हो तो अशुभ होता ॥ १६५ मनुष्यकी थोडी हो ॥ १६९ ॥ ॥१७०॥ मांसोपचितं स्निग्धं गूढशिरं कोमलं चरणष्टष्ठम् । रोमखेदे रहितं पृथुलें कमठोन्नतं शस्तम् ॥ १६६॥ अर्थ-जिस पुरुप चरणपृष्ट (पांखकी पीठ) मांसस पूण, चिक्कण और जिसमें नसें नहीं चमकै, कोमल तथा रोम पसीनसे रहित, चौडा, कछुवेकी पीठके समान ऊंचा ऐसा होता है, इससे विपरीत अशुभ जानना ॥ १६६ ॥ अर्थ-जिस पुरुपके पांवकी बीचकी अंगुठी बडी हवे तो कार्य को विध्वंस करे, छोटी होय तो दुःख हो, तथा जो बराबर और बहुत समीप हो तो पुत्रकी उत्पत्ति थोडी होय और आयुभी उस यस्य प्रदेशिनी कनिष्ठिका भवेत् ध्रुवं स्थूला॥ शिशुभावे तस्य पुनर्जननी पंचत्वमुपयाति अर्थ-जिस पुरुषके पांवकी प्रदेशिनी (अंगूठेके पासकी अडी) और छोटी अंगुली मोटी होय तो लडकपनमें उसकी चरणपृष्ठ शुभ माता मृत्युको प्राप्त होवे ॥ १७० ॥