सिंदूरी शाम का ढलना ...
सिंदूरी शाम का ढलना ...
इस जीवन को समझना, उसको पढ़ पाना बहुत मुश्किल काम है। जीवन के सूर्य को उदित होते देखकर यह अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता है कि उसके ताप का क्या प्रभाव होगा ..उसकी शाम का क्या राग - रंग होगा ..और रात ? रात के बाद वाली सुबह होगी भी या नहीं ? देश की विख्यात नर्तकी कुमकुम हों या उनके पति प्रोफ़ेसर दवे , मुम्बई की फ़िल्मी दुनिया के उभरते कलाकार प्रशांत कुमार हों या उनकी प्रेमिका
कनिका ..किसी की भी ज़िंदगी की किताब पढी नहीं जा सकती है !काश ऐसा हो पाता ...काश !
दिल्ली की शाम कुछ अलग तरह की होती है। हाई प्रोफाइल लोगों का देर रात तक पार्टियों में शरीक होना , उन पार्टियों के मार्फ़तपोलिटिकल इन्फ़्लूएन्स का फायदा उठाना ,बड़े बड़े ठेके लेने का जुगाड़ बैठाना ...सब कुछ तो यहाँ हुआ करता है। प्रोफेसर दवे अपने हौज ख़ास के पुराने मकान में जबसे रहने के लिए आये हैं उनके पुराने मित्रों का धीरे धीरे जुटाना शुरू हो चुका था ।ज़िंदगी भर बाटनी की किताबों में उलझे रहने वाले प्रोफसर दवे अब आम आदमी
ज़िंदगी बिताने के मूड में थे।लेकिन ज़िंदगी उन्हें आम आदमी होकर जीने दे तब तो ?
मुम्बई में प्रशांत से जुड़ी हर खबर पर उनकी नज़र बनी रहती थी। प्रशांत की ड्रग पार्टी की खबर आग की तरह पूरे देश में फ़ैल चुकी थी।इस पार्टी से जुड़े तथ्यों का मीडिया ट्रायल शुरू हुआ ही था कि एक दिन अचानक मुम्बई से खबर आई कि प्रशांत अपने बेड रूम में सोसाइड कर लिए।आनन - फानन
में प्रोफेसर दवे ने फ्लाईट बुकिंग करवाई। अगली सुबह वे मुम्बई पहुँच गए। उधर पांडिचेरी से मिसेज कुमकुम हांफती - फांदती किसी तरह मुम्बई पहुंची।उन लोगों के लिए इससे बड़ा दुःख और कुछ नहीं हो सकता था कि अभी उसके बेटे के सपनों को पंख भी नहीं लग पाए थे कि उसके जीवन के दिन समाप्त हो गए। उन लोगों को यह बात भी नहीं समझ में आ रही थी कि आखिर वे कौन से कारण थे कि प्रशांत ने सुसाइड कर लिया ?........
पोस्टमार्टम के बाद प्रशांत का शव परिजनों को सौंप दिया गया था। कोई इसे हत्या तो कोई इसे साजिश करार दे रहा था। सभी में एक बात की
साम्यता थी कि प्रशांत सोसाइड कर ही नहीं सकता था !
लगभग पन्द्रह दिन तक मुम्बई रहने के बाद प्रोफेसर दवे ने प्रस्ताव रखा कि कुछ दिन के लिए कुमकुम उनके साथ दिल्ली चली चलें। दोनों की दिल्ली वापसी हो गई । दिल्ली का पुराना घर जाने क्यों इन कुछ ही दिनों में भुतहा घर जैसा लगने लगा था !कुमकुम तो मानो घनघोर डिप्रेशन में चली गई थीं।
यूं यकायक रूठे हुए जीवन को सामान्य बनने में महीनों लग गए। उस दिन किसी अपने मित्र के निमन्त्रण पर प्रोफ़ेसर दवे जे.एन.यू. में आयोजित एक समारोह में चले गए। बार - बार कहने के बावजूद भी कुमकुम वहां जाने के लिये तैयार नहीं हुईं ।समारोह में एक युवा कवि अपनी कविता पाठ कर रहे थे -
" छंटा रात का घना अन्धेरा , देखो भोर सुनहरी आई।
लेकिन जीवन कल जैसा ही ,गहरा कुआं और अंधी खाई !।
पंछी कलरव गान सुनाते,शांत चित्त मन को हैं भाते।
हरकारे अखबार बांटते , दुनिया को घर घर पहुंचाते।।
'शुकवा'तारा फिर मुस्काया , मौन मधुर हो हाथ हिलाया ,
कोयल उठी लिए सुर तान ,छोड़ दुखों को सुन ले गान।
गौरईया का शुरू फुदकना ,चलो डाल दें उसको दाना ,
हौले हौले हवा चल उठी,साँसों का अद्भुत मुस्काना।।
रात घनी फिर फर आयेगी ,व्यथा वेदना फिर लाएगी ,
फिर हम आस लगा बैठेंगे ,भोर ज़रा जल्दी से आना ,
भोर ज़रा जल्दी से आना !! "
शरीर से भले प्रोफ़ेसर दवे वहां रहे हों लेकिन मन से वे कहीं और थे। कब इस कविता पाठ का सिलसिला शुरू हुआ और कब ख़त्म हो गया उनको पता ही नहीं चला।उनको तो याद आने लगा अपना गाँव ..अपने गाँव के खेत खलिहान ..सूखी रोटी भी खाकर मस्त रहने वाले गाँव के किसान ...और ..और उनका मस्त बचपन !मानो वे सारे द्वार खोलकर बाहर निकल आये हों और यह उनका अपने भीतर प्रवेश करने .......करते रहने का पहला क़दम हो !
उन्होंने अपने पढाई के दिनों में प्रेमचंद की कहानी गोदान पढ़ी थी। विज्ञान का विद्यार्थी होने के बावजूद उनको हिंदी साहित्य और कथा संसार में गहरी रूचि थी। गोदान का नायक होरी से उनकी सिर्फ किताब के पन्नो में ही मुलाक़ात नहीं हुई थी बल्कि उस जैसे पात्रों को उन्होंने निकट से देखा जाना भी था। धनिया, गोबर, सोना और रूपा जैसे पात्र उसके गाँव में अब भी इस अजीब जीवन के कठिन ककहरे को पढ़ रहे थे। गाँव की सड़ी गली मान्यताओं से घबरा कर ही तो वे शहर भाग आये थे लेकिन शहर में भी क्या उनको सुकून मिल पाया ?........शायद नहीं क्योंकि कुछ मामलों में शहर तो गाँव से भी भयावह होते जा रहे हैं।एक फ़्लैट का बन्दा बगल के फ़्लैट वालो तक को नहीं जानता है,कई कई दिन तक सलाम दुआ नहीं हुआ करती है ..क्या जीना और क्या मरना !
" मिस्टर दवे ..मिस्टर दवे ' कोई मित्र उनके कंधे झकझोर रहा था। हडबडाकर वे उठे और मानो वे किसी और दुनिया से वापस लौटे हों। सहजता से सहजता की और उनकी वापसी हुई और अब वे अपने हौज खास के मकान में आ गए थे।
घर का दरवाज़ा नौकर ने खोला। वह उनसे खाने के बारे में कुछ पूछता कि वे सीधे अपने कमरे में जाकर अपने बिस्तर पर लुढ़क गए।मिस्टर दवे और कुमकुम की ज़िंदगी तीखी -तुर्श होती जा रही है। उन दोनों के अन्दर मर्मभेदी तराशें उभरती जा रही हैं ..आखिर ..आखिर क्या उन्हें एक बार फिर खिलखिलाती सुबह या जाड़े की इतराती गुनगुनी धूप या सिंदूरी शाम से इश्क हो पायेगा ?