Abhinav Imroz Febuary 2024
कविता
नहीं आसान होता इमरोज़ होना
इश्क को कैनवस पर
रंगों से सराबोर करना पड़ता है
अना को
इश्क की आग में जलाना पड़ता है
अपनी हस्ती को
महबूब की हस्ती संग मिलाना पड़ता है
मोहब्बत में
अपनी उचाइयों के कद को झुकाना पड़ता है
अपने प्रीतम से भी
प्रीत को निभाना पड़ता है
नहीं आसान होता इमरोज़ होना ।
अपने कंधों को झुकाकर
उसकी शोहरत का बोझ उठाना पड़ता है
अपनी 'मैं' को
उसकी 'मैं' में
मिलाकर हम का नया आयाम बनाना पड़ता है
नहीं आसान होता इमरोज़ होना ।
धूएँ से डर तो क्या
कुरेदी हुई राख को दबाना पड़ता है
महज जिस्म से
जिस्म की भूख इश्क नहीं होता
रूह से रूह का मिलान करवाना पड़ता है
नहीं आसान होता इमरोज़ होना ।
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बुशरा रज़ा (बेनज़ीर), लखनऊ,
मो. 9519693602
कविता
मगर ये हो न सका...
इमरोज़ सुनो,
आज फिर,
कुछ साँसे छाती में उलझ पड़ीं
कल रात चाँद की पेशानी पर,
पसीना झलक आया-
कुछ बीते सफे पलटे
फिर धुआँ धुआँ हो गये
एक भूले हुये साये के
पुर्ज़े
तरतीब से जुड़े और जुड़कर
फिर बिखर गये...!!
तानपुरे के तार झनझनाये
झनकदार साज़ के बाद
फिर एक गहरी ख़ामोशी
घिर आई...
मुद्दतों के बाद किसी साज़ की
पुरनम धुन सुन रही थी मै
मगर ये ख़ामोशी ख़ल गई...!!
आज वक़्त मेरे सामने
कितने सवाल लिये खड़ा हुआ है
जवाब दूँ भी तो कैसे दूँ
जिन हालात ने साथ चलने से इन्कार किया था
मै उन्हे, राहों मे वहीं छोड़ आई थी-
कुछ तवारीख के टुकड़े रेज़ा रेज़ा
सामने तो आये मेरे
मगर पोशीदा पोशीदा रहे मुझसे--
कोई सुराग़ मिल जाता अगर तो
छाती की टीस कम कर जाता---!!
मगर ये हो न सका--
मगर ये हो न सका-----!!
इमरोज़,
अब मेरी ज़िन्दगी का हर सफा
तुमसे शुरू होता है ।
इमरोज़ सुनो,
तुम अपने ख़यालों से मुझे आज़ाद कर दो
तुम चाहो तो हर पल मुझसे किनारा कर लो
मेरे हर उस लम्हे से अंजान होकर गुज़रो
मेरी आंखों के नम होने के पहले गुज़रो
अभी तक तुम्हारी यादों का कोहरा छटा नहीं
सिर्फ तुम अपने सख़्त लहज़े को रवा कर दो
पिछले बरस यही जाड़ों का मौसम सुहाना था
किसी सूरत तुम इस मौसम को आने से रोक दो
मैने बहुत पाबंदियाँ लगा रख्खी है खुद पर
कैसे पाऊँ छुटकारा इनसे तुम ये रस्सियाँ खोल दो
मेरा दिल भी शिगुफ्ता शिगुफ्ता होना चाहता है
मगर तुम्हारा ख़्याल बारहा सामने चला आता है
अब तुम से मेरी मुलाक़ात एक क़सक बन गई
अब जब के तुम चले गये हो मेरी उम्मीद की शमा बुझ गई
इमरोज़ सुनो,
तुम अपने ख़्यालों से मुझे आज़ाद कर दो...!!
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इमरोज़ —“एक पल” जो नहीं रहा !!
इमरोज़- एक साया
इमरोज़-घर की छत
इमरोज़-एक घना वृक्ष
इमरोज़-एक हमराही
इमरोज़ -मजनूँ सा प्रेमी
इमरोज़- हरफ़नमौला व्यक्तित्व
इमरोज़-एक कलाकार हर प्रकार के !
यह हैं चंद शब्दों में इमरोज़ !! इन चंद शब्दों में इमरोज़ रचे बसे हैं, मेरी अवधारणानुसार ! अमृता प्रीतम के इमरोज़ का ख़्याल आते ही ये सारे अक्स मेरे ज़हन में एक-एक कर उभरते और इमरोज़ की तस्वीर में समाते चले जाते हैं ! देखें, इमरोज़ मेरे लिए इन सभी अक्सों में समाए क्यों लगते हैं ।
पहला अक्स अमृता के साये का लेते हैं । इमरोज़ अमृता का ऐसा एक साया, जो क़दम -दर- क़दम जीवन के हर मोड़,हर दिन/रात हर मौसम उनके साथ चलता रहा । साया कह पाना भी मुश्किल है क्योंकि साया रोशनी में तो साथ होता है पर अंधेरे या रात में खो जाता है !
इसके बावजूद इमरोज़ को अमृता का साया कहना चाहूँगी; एक ऐसा साया जो अमृता के संग क्या जीवन की रोशनी या क्या अंधेरा ; अमृता की परछाईं बना उनसे कभी जुदा न हुआ; कारण इमरोज़ एक अलग शख़्सियत होने के बावजूद अमृता का अभिन्न अंग बन उसकी रूह में बस गए थे, इस हद तक कि उनके संग न होने का अहसास तो अमृता को होता था और वे “ ईमा “ ईमा कहाँ हो “पुकार उठतीं पर उसी “ ईमा” के साथ रहने पर उसके हर पल उन पर फ़ना होने का अहसास नहीं कर पाईं कभी भी !! यह बात ठीक वैसी लगती है मुझे ; जैसे कोई अपने अंदर बसी आत्मा से इस कदर अनभिज्ञ हो जाए कि आत्मा से दूर होने पर तो बेचैन हो उठे पर उसी आत्मा की उपस्थिति से अनजान रहे ; या यूँ कहें कि “ टेकन फ़ॉर ग्रांटेड “ हो जाए !!
दूसरा अक्स ज़हन में एक पुख़्ता छत का आता है ! इमरोज़ अमृता के जीवन में एक पुख़्ता छत की तरह थे; जो हर तूफ़ान, सर्दी /गर्मी से तो बचाती ही है साथ ही जिन सरों को ढँकती है, उनकी हर ज़रूरत पूरी कर हर बला से महफ़ूज़ रखती है !! इमरोज़ ने जीवन पर्यंत अमृता व अमृता के बच्चों के लिए यही किया !
इमरोज़ अमृता के दालान का एक घना वृक्ष थे ! उस वृक्ष घनी ठंडी छाँव अमृता की रूह को हर हाल में ठंडक पहुंचाती रही । इमरोज़ रूपी वृक्ष की मज़बूत लचीली टहनियों पर अमृता की कल्पना के झूले पड़े थे, उन पर जब जी चाहा झूल वे कल्पना जगत् के ताने- बाने बुन उन दुशालों में लिपटी रहती! उस वृक्ष की दृढ़ टहनियों पर अमृता के स्वप्न जगत् के अनगिन घोंसले बना करते और इन सबको उस वृक्ष ने बड़ी सहजता से सम्भाला, सहेजा और संवारा था !!
इमरोज़ ने अमृता के जीवन में 'डॉ.देव' की आवाज़ बन पदार्पण किया और पल भर में जीवन भर का 'इमरोज़' हो गए!!वह आवाज़ अमृता की हमराह बनी सदा रास्ते के कंकड़ पत्थरों को हटाती और गढ्ढों को भरती अमृता की हमराज़ बनी रही!! इमरोज़ अमृता के ऐसे हमराही थे जिसने उस राह पर अमृता के संग और कौन चल रहा है इसका भान भी न किया ! वह सर नवाए अमृता के पैरों पर नज़र गड़ाए रहे 'कहीं काँटा न चुभे कोई' !! वे अमृता के स्वप्न जगत् के पंखों को विस्तार देते रहे ! (तुरंत का पल या प्रस्तुत पल)
इमरोज़ को अमृता के जीवन में मजनूँ की दीवानगी वाले व्यक्तित्व का इंसान पाती हूँ ! मजनूँ जो अपनी लैला की ऊँची अटारी पर तो चातक सी नज़र गड़ाए रहता पर अपनी सारी सुध बुध खोए रहता !! इमरोज़ ने स्वयं एक उच्च कोटि का कालाकार होने के बावजूद,अपनी सारी कला, रचना यहाँ तक कि अपना पूरा वजूद अमृता पर क़ुर्बान कर दिया और अमृता को अहसास क्या दिलाना स्वयं भी कभी महसूस नहीं किया कि उनका अपना कोई अलग वजूद भी है !!
इमरोज़ एक हर- फ़न- मौला व्यक्ति थे मानों कोई जादुई चिराग़ का जिन हो! अमृता ने कहा न कहा पर उनकी हर ज़रूरत, हर इच्छा यहाँ तक की अमृता के बच्चों तक की ज़रूरतें पल भर में पूरी करना मानों इमरोज़ का दीन था !!
इमरोज़ जितनी अच्छी पकड़ तूलिका और रंगों पर रखते थे उतना ही अच्छा अधिकार उन्हें शब्दों व क़लम पर भी था ! जीवन जीने की हर कला के वे माहिर कलाकार थे ; हर वस्तु में लिप्त होकर भी निर्लिप्त ! और इन सबके बीच इमरोज़ इतना सिमट गए कि जीवन के कैनवस पर एक रक्ताभ बिंदु से ज़्यादा कुछ न रह सके !! यह बात दीगर है कि अमृता की आत्मा के लिए यह रक्ताभ बिंदु एक पूर्ण धड़कते दिल की शक्ल इख़्तियार कर लेता !!!
इसीलिए कहती हूँ कि इमरोज़ फ़ना होकर भी; उस फ़ना व्यक्तित्व की राख में से शोले सा दहकते दीखते हैं !!!
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अतिथि संपादकीय
डॉ. उमा त्रिलोक
अमृता और इमरोज़ की दस्ताने मोहब्बत के दरिया
में से निकली कुछ नायाब सीपियाँ और कुछ रंगीले शंख
पाठकों के समक्ष प्रस्तुत हैं !
अमृता के लिए इमरोज़ की बेपनाह और बेमिसाल मोहब्बत को किसी के शब्दों में यूँ ब्यान किया जाये तो अतिश्योक्ति नहीं होगी,
"लुटा कर बेपनाह मोहब्बत उस पर क़ुर्बान हो जाऊँ
उसे अपना दिल बना लूँ और मैं धड़कन हो जाऊँ "
इमरोज़ ने ख़ुद अपनी मिट्टी को अमृता की मिट्टी में यूँ तहलील कर लिया था या यूँ कहें कि फ़ना कर लिया था कि अगर कोई उन्हें ग़ौर से देखता तभी उसे, एक ऐसा मोहब्बत का मुज़स्मा दिखायी देता जिस में शामिल था, अमृता का तसव्वुर और इमरोज़ की अपनी एक रूहानी शख़्सियत, जिसे ख़्वाबों को हक़ीक़त में बदलने का फ़न आता था ।
इमरोज़, एक हँसता, मुस्कुराता चेहरा, जिस पर ख़ुदा की नेमतों के लिए शुकराना झलकता और एक ऐसा नूर, जिसे ख़ुदा, किसी ख़ास ही को अता करता है ।
ख़ुदा को जैसे, ख़ुदा बनने का शौक़ नहीं है, वैसे ही शायद इमरोज़ को भी अपना कोई फ़न दिखाने का शौक़ नहीं
था ।
इमरोज़, इमरोज़ यानी “आज”, वह आज में ही जिये और जीने का क्या सलीका सिखा गये ।
इमरोज़ ने संतों की तरह खुदी से दूर, ख़ुद को छिपा कर रखा हुआ था, जैसे चाँद को बादलों ने घेर रखा हो और चाँद ने बादलों से बाहर न आने का फ़ैसला कर लिया हो ।
इमरोज़ ने अपनी पहचान को पहचान के दायरे से बाहर रखा। ख़ुद को न देखा, न पहचाना, बस अपने महबूब को देखा और उसे ही ख़ुदा मान लिया और ख़ुद को उस पर क़ुर्बान कर दिया ।
"तुम को पाया है तो ख़ुद को खोया है
फूलों में पड़ी खुशबूओं की तरह "
अब यह कहना मुश्किल है कि किसने फूलों की ख़ुश्बूओं को खोया है या किसने पाया है ।
अमृता के जाने के बाद, इमरोज़ ने माना ही नहीं कि वह इस दुनिया में नहीं है । उन्हें हमेशा उन्हीं की बारे में बातें करते देखा, जैसे उन्हीं के साथ उठते बैठते हों, और उन्हीं के साथ रहते हों बतियाते हों ।
इमरोज़ के हाल को अगर 'फ़रहत एहसा'स के अलफ़ाज़ में कहें तो कितना वाजिब लगता है,
" इक रात वह गया था जहां बात रोक के
अब तक रुका हुआ हूँ मैं रात रोक के "
इमरोज़ ने मोहब्बत को नये मायने दिये, एक नये अ"याम तक पहुँचा दिया कि इस युग में जिसे न पहले कभी सुना, न देखा ।
इमरोज़ जैसे शख़्स के लिए यह कहना वाजिब नहीं कि वह नहीं रहे ….उन जैसे लोग, चिरंजीवी होते हैं
हीर - रांझा, सोहनी- महिवाल,सस्सी- पुन्नु की तरह …. वह कभी नहीं मरते ….वह रहते हैं, युगों युगों तक, आने वाली पीढ़ियों के लिए, निस्वार्थ जीने की और अपने महबूब पर अपनी जाँ निछावर करने की एक मिसाल देने के लिए ।
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सुश्री अमिया कुंवर, दिल्ली, मो. 9811579138
प्रेम का पर्यायवाची शब्द : इमरोज़
सच में प्रेम का दूसरा नाम सोचें तो बेसाख्ता ही इमरोज़ का चेहरा सामने आ जाता है । 22 दिसम्बर 2023; इमरोज के बेजान मस्तक पर चुंबन देते हुए यादों की रील घूमने लगी ।
उनसे पहली बार मिलने से ले कर अंतिम मुलाकातः जीवन्त हादसों का हुजुम मेरे साथ-साथ चहलकदमी करने लगी । पहली मुलाकात मेरी अलहड़ जवानी की धुंधली याद है । बी. ए. द्वितीय वर्ष की छात्रा अमृता प्रीतम की प्रशंसक उनसे मिलना चाहा ।
उन्होंने फोन पर हामी भर दी । यह सन् 1975 की बात है । मैं उनके घर पहुँची, इमरोज़ चाय बनाने चले गए । अमृता जी को पता चला कि मैं कमला नेहरू कॉलेज में पढ़ती हूँ । ऊँचे स्वर में इमरोज़ को बुलाया -‘‘ईमा, यह अपनी कृष्णा के कॉलेज में पढ़ती है । (कृष्णा ग्रोवर, हमारे कॉलेज की प्रिंसीपल, अमृता जी के उपन्यास 'चक्क नंबर छत्तीस', उन्होंने अंग्रेजी में अनुवाद किया था ।) इमरोज़ का मुस्कराता, चेहरा, अपनत्व लिए हाथ मेरे शीश और पेशानी को छू गया । चंद बातें... याद नहीं क्या-क्या विषय थे । ज़रूर उनकी किताबों से संबंधित होंगे । फिर वर्ष दर वर्ष बीत गए । जिंदगी ने मोहलत ही न दी । 1984 में मेरा विवाह हौज़ ख़ास, उनके निवास स्थान के साथ जुड़े सफ़दर जंग डिवेलपमेंट एरिया में हो गया । पाँच साल बीत गए । उनके घर के पास से आने - बहाने निकलते हुए सुबह... ।
सुबह अमृता जी, इमरोज के कंधे पर हाथ टिकाए अक्सर हमारे घर के सामने के पार्क में सैर करती दीखतीं । मैं काम पर जाने के लिए तैयार हो रही होती ।
और एक दिन हम भी हौज़ ख़ास मार्किट से आ रहे थे । (मैं और मेरे पति हरप्रीत) इमरोज़, देव (पंजाबी कवि, चित्रकार) के साथ मार्किट से आते दिखे । देव की पत्नी जोगिन्द्र (जोगी दीदी) मेरी बहुत प्यारी दोस्त थी । मैंने उन्हें घर आने का निमन्त्रण दिया ।
कुछ ही देर में वे हमारे घर बैठे, चाय पी रहे थे । जैसे जाने कितनी पुरानी पहचान हो । उसके बाद इमरोज़ कई बार आए । दरअसल बातों-बातों में उन्हें हरप्रीत से पता चला कि जालंधर में कोई वैद्य है, जिसे एगज़ीमा दूर करने का शफ़ा हासिल है । अमृता जी के पति स.प्रीतम सिंह क्वात्रा का एगज़ीमा ठीक नहीं हो रहा था । उन्हीं की दवाई के लिए हरप्रीत से मिलने आते थे । फिर एक दिन अचानक अमृता जी का फ़ोन आया, मुझे एक निजि अनुवादक की ज़रूरत है, मुझे पता चला है तुम्हारी हिंदी और पंजाबी दोनों भाषाओं में बराबर की कमाण्ड है । बस फिर जो सिलसिला शुरू हुआ, वह अब तक कायम है । अमृता जी के होते हुए भी इमरोज़ जी का मेरे प्रति बाप वाला मोह झलकता रहता था । एक बार एक हादसे में अप्रैल, 1993 में मेरे टखने की हड्डी चटख गई । पता चलने पर इमरोज़ मेरे घर आए और ढेर सारी किताबें दे गए । "जब तक बिस्तर पर हो, इन किताब के साथ समय बिता" । और एक दिन मुझे उन दोनों की एक तस्वीर बहुत पसंद आई । खूबसूरत पेंटिंग-सी । अमृता जी खाना बना रही । इमरोज़ जी प्लेट हाथ में लिए खाना खा रहे । मैंने झिझकते हुए माँगी तो मेरा हाथ पकड़ कर अमृता के पास ले गए- यह अपने घर से कोई चीज़ लेते हुए झिझक रही है । इससे कहो - "यह तेरी ससुराल नहीं; मायका है जो दिल चाहे, उठा ले । इजाजत की ज़रूरत नहीं", फिर मुझे रसोई के साथ जुड़ी लॉबी में एक तरफ दिवार पर बने ब्लैक बोर्ड की ओर ले गए जहाँ कुछ लोगों के फोन नंबर लिखे हुए थे, जिस पर मेरे ससुराल, मायका, मेरी बहन और एक दो और दोस्तों के फोन नंबर थे । उन दिनों मेरे पास मोबाइल नहीं था । (सो जहाँ मेरे होने का पता चलता वहाँ उनका फोन आ जाता) उसी ब्लैक बोर्ड पर सबसे ऊपर चॉक से इमरोज जी ने कैलीग्राफी से लिखा हुआ था Every thing you love is yours. उसकी ओर अँगुली से इंगित कर कहा "आगे से यह ध्यान में रखना ।" जब कभी मैं फूल लेकर जाती सीढियों से आवाज़ देते हुए अमृता के कमरे में जाते कहते हुए "देख बरकते ! फूलों जैसे चेहरे खिली मुस्कान वाली लड़की तेरे लिए फूल ले कर आई है ।" अमृता जी की जब सांसें टूटरहीं थीं तो सबसे पहले मुझे ही फोन किया - अमिया, जहाँ भी है, जल्दी आ जा । इतने ग़म में अमृता के दाह संस्कार के बाद रात होने पर मुझे स्कूटर में बिठाने आए । अमृता के जाने के बाद हम हर समागम में एक साथ जाने लगे, पटियाला, अमृतसर, चण्डीगढ़ जाने कहाँ-कहाँ ?
एक खूब सूरत याद....धूप वाली महफिल (छत्रपर, भापा प्रीतम के फार्म हाउस पर) में हम खाना खा रहे थे । मेरे साथ थी, मेरी बिटिया पंखुड़ी, जो उस समय 11 बरस की थी., इमरोज जी ने पानी माँगा, मैं उठ कर जाने लगी कि पास पड़ा पानी का गिलास उन्होंने उठा लिया– मैंने रोकते हुए कहा - इमरोज़ जी, यह मेरा जूठा है । इमरोज़ जी ने हंसते हुए, गिलास होठों से लगा लिया, यह कह कर, "बेटियों का जूठा नहीं होता ।"
अमृता जी के जाने के बाद, वह कहते कुछ नहीं थे, पर कहीं भीतर से असुरक्षा की भावना आ गई थी । अब वह कहीं अकेले बाहर जाते तो सफेद लिफाफा उनकी जेब में होता । जिसमें कुछ रुपए रखे होते और उसके बाहर- अलका, (अमृता जी की बहू), अमान (उनका पौत्र) और मेरा मोबाईल नंबर लिखा रहता कि अगर कुछ अनहोनी हो तो हम से संपर्क किया जाए ।
उनकी पहली कविता मेरी किताब के अंतिम पन्ने का शृँगार बनी । (अमृता प्रीतम पर लिखी कविताएं: 'आबरां दी जाई') मेरी काव्य पुस्तक 'धम्मी वेला' का टाइटल कवर तो बनाया ही, उसकी पिछली जिल्द पर अमिया कुँवर के नाम से कविता भी लिखी है ।
दो बार हम आपस में नाराज़ भी हुए । उसमें मेरा बचपना भी था । वे अपनी जगह सही थे । पर मैं उन पर नाराज़ होने का पूरा अधिकार रखती थी । सो चार-पाँच दिन निकल गए । अलका ने परेशानी में कहा– "बाबा जी, अमिया दीदी नाराज़ हैं ।" इमरोज़ कहने लगे, "जब गुस्सा शांत होगा, आ जाएगी" । भीतर से कहीं वे भी बेचैन थे । अलका का फोन आया, दीदी यह आपका भी घर है । किसी तरह अलका ने मुझे मना लिया । चौखट मुझसे लांघी नहीं जा रही थी । इमरोज़ अपने कमरे में पेंटिंग बना रहे थे । टेढ़ी नज़र से मुझे देखा । काम छोड़, दरवाज़े पर आए, मुझे बाहों में लेते हुए, मेरे मस्तक पर चुंबन दिया । मेरा धर्मी बाबुल, कैसे उस पर गर्व न करूँ ।
अमृता के जाने के बाद अक्सर फोन कर बुलाते... टैरिस पर हम कॉफी पीते हुए अमृता को हवा में साँस लेते महसूस करते । मेरे जन्मदिन पर घर बुला कर केक काटते । कितनी ही यादें हैं, जिन्हें फुर्सत में लिखूंगी । पिछले साल 26 जनवरी, उनके जन्म दिवस पर दो दिन के लिए मुंबई गई । खूब खुश हुए । फिर मई में जाना हुआ । तब बहुत कमज़ोर लगे । मुझे पहचाना । बातें कीं । पर मेरा और पंखुड़ी (मेरी बिटिया) का हाथ कस कर पकड़े रहे । जैसे कुछ छूट रहा हो उसे थामना चाह रहे हों । नवंबर के अंतिम सप्ताह में अलका का फोन आया । " दीदी बाबा जी बिमार हो गए थे, कुछ दिन अस्पताल रहे; अब घर पर हैं । बिटिया को कहा - 26 जनवरी 2024 की मुंबई के टिकट बुक करा दे । इमरोज़ जी का जन्मदिन है । 6 दिसंबर पार्क में सैर करते हुए गिर जाने से मेरे पैर के अंगूठे की हड्डी चटख गई । दर्द से बेहाल थी । अलका से फोन पर बात होती रहती थी । इमरोज़ जी की तबीयत की नासाजी को लेकर ।
जब दिसंबर में अलका का फोन आया । मेरी तकलीफ सुन चुप कर गई । पर मेरे अंदर कुछ बुझ सा गया । बीस दिसंबर बिटिया ने मेरा चेहरा देखा झट से 21 दिसंबर की टिकट करवा दी । उनका घर मेहमानों से भरा हुआ था । डाक्टर गुरप्रीत अपने घर ले गए कि सुबह आफिस जाते हुए छोड़ दूंगा । पर सुबह - सुबह शिल्पी का फोन आ
गया ।
ऑटी... आँटी बाबा जी... आवाज़ आंसुओं में डूबी हुई, कुछ बोल नहीं पा रही थी । बेसाख्ता ही मेरे होठों से निकला नहीं रहे.... झट से हम उनके घर की ओर रवाना हो गए. वह महान शख्स ख़ामोश, शांत, बिस्तर पर लेटा हुआ
था । पेशानी को सहलाया । चुंबन दिया । आँख से आँसू टपका । जाने कहाँ गिरा ? पूरे रीति-रिवाजों' के साथ फूलों और शालों के साथ, मन्त्रोंउच्चारण हुए । शिल्पी के ससुराल, परिवार की ओर से । एक छोटी सी सिक्ख रीति को ध्यान में रखते हुए मैंने अरदास की । विशाल (शिल्पी के पति ने) उनकी देह पर दो कोरे कागज और दो पेंटिंग ब्रश रखे । और इमरोज रवाना हुए अनंत के सफ़र की ओर । धनुकर बाड़ी शमशान घाट में बिजली से उनका दाह संस्कार हुआ । अगले दिन उनके फूल राख चुन कर पास बहते समुद्र के अक्षय तट में बहा दिए । पाँच तत्वों का शरीर पाँच तत्वों में विलीन हो गया । वह जो मेरा बाबुल भी था, बाल सखा भी, मेरा सैंटा क्लास भी जाने कितने रिश्ते थे उसके साथ... अब तो बस यादें ही हैं.... । ]
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कौन कहता है इमरोज़ नहीं रहे....
इमरोज़, एक चित्रकार, एक कवि और एक दार्शनिक, हमारे बीच में से उठ कर ज़रा दूर चले गये हैं, जैसे अपनी महबूबा अमृता के साथ किसी और सफ़र पर निकलना हो ।
किसी ने इमरोज़ से एक बार पूछा कि अमृता को लगता है कि पिछले जन्म में आप उनके रांझा थे, तब वह बोले थे,
"मुझे याद नहीं पिछले जन्म में मैं कौन था लेकिन मेरा मानना है कि
"जो जीवे ढाई अक्षर प्रेम के
सोई रांझा, सोई हीर"
इमरोज़ ने क्या खूब जिए ढाई अक्षर प्रेम के ।
जैसे हीर रांझा, सस्सी पुन्नु, सोहनी महीवाल, चिरंजीवी हैं वैसे ही अमृता इमरोज़ भी सदैव रहेंगे ।
इमरोज़ 45 वर्ष अमृता के साथ धरती पर जिए और 18 वर्ष उनके जाने के बाद पूर्णतः अमृतामय हो कर जिए वैसे ही अब वह सदैव अनंत काल के लिये अमृता के साथ जियेंगे, भरपूर प्रेम में विलीन……
गीतकार गुलज़ार ने मेरी किताब "अमृता इमरोज़ ए लव स्टोरी "के आमुख में लिखा है,
अमृता ने मोहब्बत का एक ऐसा दुशाला ओढ़ रखा था जिस में इमरोज़ की गर्माहट की महक आती रहती थी । इमरोज़ ने अपनी "रोशनी "को अमृता में इस तरह तहलील कर दिया था कि एक और चिराग़ जल उठा था "दोस्ती" का ।
वह दोस्ती का चिराग़ यूँ जला कि इमरोज़ के जज़्बात को और उनके दिल के हाल को यूँ ब्यान किया :
"रख दूँ जो अपना हाथ तेरे सीने पर
फिर गिन लूँ मैं धड़कन अपने दिल की"
शुरू शुरू में, जब रेडियो स्टेशन की गाड़ी अमृता को बैठा कर इमरोज़ के घर के सामने से गुज़रती, तो इमरोज़ बालकनी में खड़े होकर उन्हें देख लिया करते, लेकिन जब इस से दिल नहीं भरा तो उन्होंने अमृता को उनके बुक कवर के डिज़ाइन दिखाने के बहाने दोस्ती बढ़ाने की कोशिश की । एक शाम तो अमृता को रेडियो स्टेशन से लिवा लाने के लिए ही पहुँच गये । उस दिन आसमान पर पूरा चाँद निकला हुआ था और साथ में था उनका दिलबर, और क्या चाहिए था
उनको ? चुपचाप साथ-साथ चलते रहे, बीच-बीच में एक दूसरे को देख लेते और पटेल नगर पैदल ही पहुँच गये । खाने का वक्त हो चला था, घर के नौकर ने अमृता के लिए दो रोटी और दाल सब्ज़ी बना कर रखी थी वही दो प्लेटों में परोस कर सामने रख दी । अमृता को लगा, इमरोज़ का पेट एक रोटी से कैसे भरेगा तो उसने अपनी प्लेट से आधी रोटी तोड़ कर इमरोज़ की प्लेट में रख दी । इमरोज़ ने उसे ऐसा करते देख लिया और मुस्कुराते हुए वह आधी रोटी क़बूल तो कर ली और बदले में सारी ज़िंदगी अपना इल्म, अपना हुनर, अपने सपने और यहाँ तक कि अपना सारा वुजूद अमृता की थाली में परोस दिया और ताउम्र अमृता की ओर ताकते भी रहे और ख़ामोश आवाज़ में पूछते भी रहे, कि कोई कमी तो नहीं रह गई ?
अमृता को एक सुविख्यात कवयित्री बनाने में इमरोज़ का बहुत बड़ा हाथ था । अगर अमृता किसी बात से दुनिया से नाराज़ है, परेशान है, किसी पेचीदा हालात में फँसी हुई है, उदास है, निराश है तो इमरोज़ ही थे जो उसे ढाँढस बँधाते, हालात से लड़ना सिखाते, हर मुश्किल को आसान बनाते, उनके रास्ते के काँटे चुनते जब कि उनके अपने हाथ लहुलुहान होते रहते । वह समाज की तोहमतों, बदनामियों को सहते रहते, फिर भी, न कभी चेहरे पर शिकन उभरी, न दिल में मलाल, अमृता पर हर पल क़ुर्बान होते रहे । ख़ुद के लिए कुछ नहीं, न शोहरत, न तरक़्क़ी, न पैसा, न मान, न सम्मान …
"न जाने कैसी मंज़िल है यह मोहब्बत की
कि बस तू ही है हर तरफ़, मैं हूँ ही नहीं"
अमृता के चले जाने के बाद एक दिन अपने घर पर, मुझ से बातें करते करते, यकदम उठ कर अमृता के कमरे की तरफ़ चल पड़े, जब लौटे तो मैंने पूछा क्या हुआ ? तो बोले,
"अमृता ने बुलाया था, पूछ रही थी, शाम को क्या पहनूँ, मैंने कहा सफ़ेद, वह सफ़ेद पौशाक में बहुत खूबसूरत लगती है "
मैं कहने ही वाली थी कि कहाँ है अमृता, वह तो है ही नहीं, लेकिन वह बोले, "हम आज ढली शाम हैबिटेट सेंटर जा रहे हैं, खिले कमल देखने, अमृता को खिले कमल के फूल बहुत पसंद हैं । मैं सोचने लगी इमरोज़ अभी भी मेक बिलीव की दुनिया में रह रहे हैं ।
अगली सुबह फ़ोन आया, कल शाम अमृता ने एक बहुत सुंदर नज़्म कही है जब तुम आओगी तो सुनाऊँगा । मेरे पहुँचाने पर जो नज़्म सुनायी वह बिलकुल अमृता के लहजे में थी, उन्हीं के स्टाइल में
"फुला विच् खड़े दो प्रेमी
फुल बन गये
खिड़ खिड़ हसदे दो प्रेमी
फुल बन गये
तक तक तैनू, ते तू मैनू
खिड़ खिड़ हसदे दोहीं
फ़ुल बन गये । ”
अब मैं कैसे न मानती कि वह दोनों साथ साथ थे और अमृता ने इमरोज़ को नज़्म भी सुनायी थी । अमृता, इमरोज़ से जुदा हुई ही नहीं, इमरोज़ दिलोजान से उनपर फ़िरेफ़्ता थे, उनका समर्पण, इबादत की हद्दें भी पार कर चुका था,
"हाथ में लूँ, या ख़ुद से लपेट लूँ
मनका हो तुम तसबीह का, कैसे जुदा करूँ "
एक दिन मैंने उनसे पूछा,
"अमृता जी को इतनी वाहवाही मिली, मान सम्मान मिला, आप को कभी यह नहीं लगा कि आपकी विलक्षण प्रतिभा को सामने आने का मौक़ा ही नहीं मिला, आप तो अमृता जी की आवभगत में ही लगे रहे ?”
उन्होंने हंस कर कहा, "उमा, तुम्हें क्या लगता है हम दोनों अलग अलग हैं, उनको जो सम्मान मिला तो वह क्या मेरा सम्मान नहीं था ? हम तो एक ही हैं, अलग-अलग कहाँ है ?
तब मुझे श्री कृष्ण की याद आयी । जब श्री कृष्ण वृंदावन छोड़ कर जा रहे थे तो राधा जी ने उन्हें कहा, "कान्हा, मैं तुम्हारे बिना कैसे जिऊँगी, तुम मुझ से विवाह कर लो और साथ ले चलो”
यह सुन कर श्री कृष्ण मुँह मोड़ कर खड़े हो गये, राधा जी ने सोचा, मना कर रहे है, लेकिन तब श्री कृष्ण ने कहा, "राधे, विवाह के लिये दो जन चाहिए होते हैं, हम दोनों तो एक ही हैं "
यह कर उन्होंने वह रूप दिखाया जिस में वह आधे राधा थे और आधे कृष्ण ।
ऐसा अद्भुत प्रेम कलियुग में भी हुआ लेकिन उसे लोगों ने पहचाना नहीं ।
एक दिन इमरोज़ को सुबह-सुबह मिलने गई तो वह अपनी पसंदीदा जगह पर बहुत चुपचाप मुद्रा में बैठे मिले, मैंने जाते ही पूछा इतने चुपचाप बैठे क्या कर रहें हैं तो उन्होंने जवाब दिया "बातें "
मैंने पूछा "किस से "
वह बोले, "अपने रब से, आप अपने रब को मिलने मंदिर, गुरुद्वारे जाते हो लेकिन मैं यहाँ बैठे ही अपने रब को मिल लेता हूँ, बातें कर लेता हूँ । मेरा रब मेरी महबूबा है । आप का रब तो आपके साथ बोलता, हँसता नहीं, पर मेरा रब तो खुल कर मेरे साथ बातें करता है, हम रूबरू होकर मिलते हैं । हम दोनों के दरमियाँ एक दरिया बहता है, हम डुबकी लगाते ही स्वर्ग पहुँच जाते हैं, शायद इसे ही महात्मा बुद्ध का निर्वाण कहा गया है । अभी-अभी मेरा रब मेरा हाथ पकड़ कर बैठा था और कह रहा था …”
इमरोज़ यहाँ रुक गये फिर बोले,
"अब मैं आप को क्या क्या बताऊँ ?"
अगर आप विश्वास करते हैं कि कोई प्रेमी इस जन्म में अपने उस महबूब से बात कर सकता जो इस दुनिया में नहीं है तो ही आप समझ सकते हैं कि अमृता और इमरोज़ का कैसा रिश्ता था ।
जब कोई व्यक्ति प्रेम में पड़ जाता है तो उसे हर प्राणी में अपना प्रीतम दिखता है, बुरा आदमी भी भला लगता है, दुश्मन भी पहचान में नहीं रहता ।
सब अपने लगते है ।
प्रेम उमड़ता है …बहता है ….तुम में,
वह "तुम "नहीं रहते जो "तुम " होते हो
तुम प्रेममय हो गये होते हो, तुम्हारी निजी पहचान बदल गई होती है, तुम अपने प्रेयस में समा चुके होते हो । इमरोज़ ने अमृता के साथ बस ऐसा ही रिश्ता निभाया ।
इमरोज़ और अमृता एक बार, अपनी कार से, दिल्ली से मुंबई जा रहे थे ।
इमरोज़ गाड़ी चला रहे थे और अमृता पास बैठी, बिन बतियाये बातें कर रही थी । इमरोज़ उन अनकही बातों को आत्मविभोर होकर सुन रहे थे और कभी-कभी बीच में, बिन बोले उत्तर भी दे रहे थे ।
तभी एक जगह पर, पुलिस की एक टुकड़ी ने उनकी गाड़ी को रोक लिया ।
इमरोज़ गाड़ी से उतरे और पूछा,
"क्या बात है ? "
पुलिस वाले ने कहा,
"यह ड्राई स्टेट है, यहाँ नशा करना मना है, तलाशी दो, एक तो शराब पी रखी है और ऊपर से यह पूछते हो कि क्या बात है "
इमरोज़ ने मुस्कुरा कर कहा,
"हम ने शराब नहीं पी, हमारी गाड़ी में शराब है ही नहीं "
"कैसे नहीं पी ? तुम दोनों की शक्लों से लगता है कि शराब पी रखी है "पुलिस वाले ने तपाक से कहा
इमरोज़ ने सिर हिलाया और कहा,
"नहीं, तलाशी लेनी है तो ले लो "
पुलिस वाले ने कहा,
"वह तो अभी पता चल जाएगा, हाँ, अगर दे दिला कर निपटारा करना है तो बात और है "
"नहीं भई, हम ने शराब नहीं पी, आप क्यों ऐसी बात कर रहें है, अगर गाड़ी से शराब मिले तो चलान काट देना, जेल भेज देना, हमें किस बात का डर है ? "
पुलिस वालों ने तलाशी ले ली, कुछ नहीं मिला । टेस्ट कर लिया, सब ठीक था और कहा,
"अच्छा जाओ …. पर नशा तो किया लगता है,
कोई पाउडर वग़ैरा खा रखा होगा । ”
इमरोज़ ने मुस्कुराते हुए गाड़ी स्टार्ट की, और हल्के से अमृता से कहा
"माजा, यह भोले लोग क्या जाने …. हम ने तो प्रेम प्याला पी रखा है ….जिस का नशा कभी नहीं उतरता "
इमरोज़ के कमरे में साहिर की तस्वीर टँगी देख कर मैंने एक दिन उनको जब, आश्चर्य भरी नज़र से देखा, तो वह हंस कर बोले,
"अमृता से मोहब्बत करना मेरी मजबूरी है वैसे ही साहिर को प्यार करना उसकी ।
मैं उसे प्यार किये बिना नहीं रह सकता वैसे ही वह भी, तो इसमें पैचीदगी क्या है ?
जो अमृता को अज़ीज़ है वह मुझे भी प्यारा है ।
तुम्हें शायद हैरानी होगी कि हम दोनों घंटों साहिर की बातें करते हैं, मैं साहिर को अपना रक़ीब नहीं मानता । अगर मुझे यक़ीन हो जाता कि साहिर अमृता को खुश रखेगा तो मैं उसे ख़ुद साहिर के घर छोड़ कर आता ।
तुम्हें मालूम है जब अमृता को साहित्य अकैडमी का अवार्ड मिला तो वह मेरे कंधे पर सिर रख कर खूब रोई थी, यह बताते हुए की जिस को उस किताब के ज़रिए उस ने संदेशे भेजे थे, उस साहिर ने, तो किताब पढ़ी ही नहीं । ”
मैं तो बस सोचती रह गई कि कैसे किसी का इतना बड़ा दिल हो सकता है ।
इमरोज़ ने सचमुच ख़ुद को अमृता की मोहब्बत में फ़ना कर दिया था और ऐसा कुछ मान भी लिया था
"तुम तो तुम हो, जो हस्ती दी है ख़ुदा ने तुमको
मगर मुझ में जो अनवार* है वह तेरी वजह से है "
जब अमृता बहुत बीमार थी, बोलती नहीं थी, कभी-कभी ही आँखें खोलती थी तब इमरोज़ एक-एक निवाला उन के मुँह में डाल कर खाना खिलाते, उनके कपड़े बदलते, बाल बनाते, फूलों से उनका कमरा सजाते और मीठी-मीठी बातों से उनका दिल बहलाते । यह सब करते हुए देखकर मैंने उनसे पूछा था,
"आप जो कहते है क्या वह सुन पाती हैं ? "
इमरोज़ बोले,
"वह बोल नहीं पाती, लेकिन मैं तो बोल पाता हूँ, जानती हो जब भी वह बोलती है बस "ईमा, ईमा "ही कहती है और मैं समझ जाता हूँ कि वह क्या कह रही है, उसे क्या चाहिए …. वह क्या सुनना चाहती है ….
मैं उसके पास बैठा रहता हूँ जाने कब मुझे आवाज़ दे दे ।
जानती हो मेरा पाठ क्या है …. मेरा एक सतर का पाठ है कि वह खिली रहे, खुश रहे "
ऐसी हालत में भी इमरोज़ ने एक नज्म कही जिस में उन्होंने कहा,
"परसों मैं पटियाले गया था
वहाँ मैंने
फुलकारी डिज़ाइन की चुनियाँ देखीं
मुझे सब इतनी सुंदर लगी कि
मैं सब की सब तेरे लिए ले आया
चल उठ
उनमें से अपनी पसंद की निकाल ले"
अमृता को कोई सुध हो या ना हो इमरोज़, अमृता के लिए कभी दुपट्टे, कभी किताबें, तो कभी फूल लाते, उन्हें भरमाते, प्यार जतलाते, तो कभी कभी किताबों में से पढ़ कर सुनाते …. यही सोच कर कि वह सुन रही है, पसंद कर रही है और खुश है ।
अमृता की रूह में समाये हुए इमरोज़, बखूबी जानते थे कि अमृता को क्या पसंद है, उसे कैसे खुश रखा जा सकता है ।
अमृता जब सख़्त बीमार थी और लगता था कि किसी वक्त ही शरीर त्याग देगी तब भी इमरोज़ को जुदाई की कोई हूक नहीं सता रही थी, वह उसी भाव मुद्रा में रहे जिस में वह हमेशा रहते थे ।
अमृता के दाह संस्कार पर जब मैंने देखा, इमरोज़ एक कोने में अकेले खड़े है तो मैंने पास जाकर उनके कंधे पर हाथ रख कर कहा,
"अब उदास नहीं होना, आप ने हर मुमकिन तरीक़े से उनकी सेवा की, लेकिन फिर भी … "
उन्होंने मेरी बात काटते हुए कहा,
"उदासी क्यों, वह गई कहाँ है, यहीं है मेरे आले दुआले ( आस पास ) ओने किथे जाना है ऐथे ही रहना है मेरे कोले ( उसने कहाँ जाना है यहीं मेरे पास ही रहना है ) । मैं तो शुकुरगुज़ार हूँ, जो मैं नहीं कर पाया वह मौत ने कर दिया … उसे, उसके शारीरिक दर्द से मुक्ति दिला दी "
उनका उत्तर सुन कर मैं दंग रह गई ।
उसके बाद जब-जब मैं इमरोज़ से मिली, मैंने उन्हें अमृता के साथ ही पाया …. अमृता की बातें करते, कभी अमृता का कमरा अडेनीयम के फूलों से सजाते हुए, तो कभी उनके पसंदीदा खाने बनाते । यही कहते कि आज मैंने अमृता के लिए पनीर भुजिया बनायी है या मैंने आज वेज सूप बनाया है उसे बहुत पसंद है, कभी उन्हें अपनी नज़्में सुनाते तो कभी उनकी नज़्में सुनते ।
इमरोज़ अमृता के लिए दिये जलाते, उनके पौधों को पानी देते या फिर उनकी बिल्लियों को दूध पिलाते हुए बहुत खुश नज़र आते ।
इमरोज़ मुझे अकेले कभी नहीं मिले, अमृता हमेशा उनके साथ होती ।
मुझे यक़ीन है, अमृता इमरोज़ अब भी साथ साथ हैं और वह दोनों हमारे साथ भी है और रहेंगे…. एक अनंत प्रेम कहानी सुनाते हुए और उसी कहानी को जीते हुए ।
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श्री सुरिंदर शर्मा, पटियाला, मो. 9888015864
इमरोज़, मोहब्बत, सादगी और सच्चाई के मोज़समा थे
इमरोज़ जी के एक दोस्त सुरिंदर शर्मा बताते हैं कि अमृता जी पर बनी दूरदर्शन की एक फ़िल्म को एक शाम फ़िल्माया जा रहा था । इमरोज़ उस दिन पटियाला आये हुए थे । सुरिंदर जी ने उन्हें फ़ोन किया और बताया कि वह फ़िल्म ज़रूर देखें, इस पर इमरोज़ जी ने उन्हें बताया कि उन के पास फ़िल्म देखने का कोई साधन नहीं है। इसे सुनकर उन्हों ने कहा कि अगर वह कहें तो वे उन्हें लेने आ सकते हैं लेकिन उनके पास स्कूटर है कार नहीं, इमरोज़ जी ने हंस कर जवाब दिया,
“ अरे यार, क्या बात करते हो, अमृता की फ़िल्म देखने के लिए तो मैं साइकिल पर भी आ सकता हूँ और पैदल
भी ।”
सुरिंदर जी आगे बतायें है ,
अमृता राज्य सभा की मेम्बर थीं , इमरोज़ उन्हें छोड़ने जाया करते थे
राज्य सभा के मेम्बरान जब काम निपटा कर बाहर आते तो उनके ड्राइवरों को नाम से पुकार कर गेट पर बुलाया जाता। जब अमृता बाहर आतीं तो “ इमरोज़ ड्राइवर गेट पर आयें “ ऐसा कह कर बुलाया जाता।
इमरोज़ गाड़ी लेकर आते, उन्होंने कभी इस बात का गिला या शिकायत नहीं की कि उन्हें अमृता का ड्राइवर कहा जा रहा है ।
वह तो बस यही कहते ,
“ मैं तेरा ड्राइवर इ चंगा , तूँ जिथे कहेंगी लै जावांगा, मैं किन्ना ख़ुशक़िस्मत हाँ कि तेरा साथ मिलिया है “ ( मैं तेरा ड्राइवर ही ठीक हूँ, जहां कहोगी ले जाऊँगा, मैं कितना ख़ुशक़िस्मत हूँ कि मुझे तेरा साथ मिला है )
इमरोज़ ऐसे शख़्स थे जिनमें अहंकार ( ego ) नाम की कोई चीज़ थी ही नहीं ।
सुरिंदर जी बतातें हैं कि एक दिन, किसी डेलीगेशन के साथ खाना खाने के लिए अमृता को किसी फाइव स्टार होटल में छोड़ने जाना था । उन्हें छोड़ने के बाद, इमरोज़ बोले , “ यार मैं अपनी रोटी साथ लाया हूँ ,चलो कहीं बैठ कर दोनों खा लेते हैं “
हम श्रीराम सेंटर पहुँचे तो उन्होंने एक छोटी सी डिब्बी में से भिंडी की सब्ज़ी निकाली और साथ में बंधी हुई तीन रोटियाँ , जो हम दोनों ने बाँट कर खायी ।
इतना बड़ा कलाकार और बेमिसाल सादगी …
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अमृता इमरोज़ और मैं...
कई बरस पहले मुझे एक पत्रिका ने उन महिलाओं के बारे में लिखने के लिएआग्रह किया, जिन्होंने अपने अपने तरीके से भारतीय समाज को प्रभावित किया है । मैंने अमृता प्रीतम के नाम सहित कुछ और महिलाओं के बारे में लिखा और बात-बात में अपने शरीक-ए-हयात से इस लेख का ज़िक्र भी किया ।
अमृता का नाम सुनकर उन्हें कुछ अच्छा नहीं लगा क्यूंकि मेरे पति, एक पुराने ज़माने के पारम्परिक, पारिवारिक इंसान हैं । और मेरी अमृता? वो तो सिगरेट पीती थीं, कभी-कभार शराब भी पी लेती थीं, तलाकशुदा थी और अपने से सात साल छोटे आदमी के साथ बिना शादी किए रहती थी ।
वो कैसे अमृता इमरोज़ की इस तथाकथित बोहेमियन जीवन शैली को स्वीकार करते? और 'लिव-इन' रिश्तों के बारे में तो बात करना भी उनके लिए नागवार था । लेकिन मेरे लिए तो अमृता-इमरोज़ को सात खून माफ़ थे ।
हमारी लंबी चर्चा हुई और मैंने लेख लिखने का विचार ही छोड़ दिया । इस घटना ने मुझे हताशा से भर दिया और दुःख ये भी कि मैं अपनी सबसे पसंदीदा प्रेम कहानी को अपने ही पति से साँझा नहीं कर पायी । यहाँ तक कि अमृता की किताबें भी मैंने अपनी बुकशेल्फ में उनकी नज़रों से दूर रक्खी थीं ।
लेकिन हक़ीक़त तो ये है कि अमृता-इमरोज़ को मैं तबसे जानती थी जब मेरे जीवन में पति का कोई नामो निशाँ न था ।
वो सदा ही मेरे अवचेतन में बसे थे और आज भी हैं ।
इस घटना के लगभग दो साल बाद, पति सिंगापुर से वापस आ रहे थे, मैं उन्हें हवाई अड्डे पर लेने गई और जैसे ही वह कार में बैठे, उन्होंने कहा, इस बार मैंने जो किताबें खरीदी हैं, उन्हें देखो । उन्होंने एक शरारत भरी मुस्कान के साथ अमृता की दो किताबें मेरे हाथों में रख दीं ।
वो कार चला रहे थे मैंने शुक्रिया कहने के लिए उनके गालों को होंठो से छुआ और वो कुछ शर्मा से गए ! आप अपने जीवनसाथी के साथ पूरा जीवन बिताते हैं और फिर भी उसे ठीक से पहचान नहीं पाते ! सच है हर युगल अमृता-इमरोज़ नहीं होता ।
और फिर, मैंने उन्हें वह सब बताया जो उनसे छिपा रखा था, (मेरे जीवन का अमृतांश), जो मुख्य रूप से इमरोज़ से मिलने की यात्रा के बारे में था । 2005 में अमृता के गुज़र जाने के बाद मेरी दिली तमन्ना थी कि मैं इमरोज़ साहब से मिल सकूँ । ये मौका तब आया जब मैं जनवरी 2010 में अपने बेटे से मिलने दिल्ली गयी जो वहां हंसराज कॉलेज में पढ़ रहा था ।
मेरे पास तो इमरोज़ साहब का फ़ोन भी नहीं था । लेकिन दिल्ली टेलीफोन एक्सचेंज से मालूम पड़ा कि उनके घर का फ़ोन अब तक अमृता के नाम से ही रजिस्टर्ड है ।
बस इमरोज़ साहब को फ़ोन किया और बताया कि मैं लखनऊ से आयी हूँ और मिलना चाहती हूँl मुझे उम्मीद नहीं थी की इस सर्दी में वो किसी मेहमान को घर बुलाने का ख्याल भी रखते होंगे लेकिन एक धीमी, शाइस्ता सी आवाज़ में उन्होंने कहा आप आ जाइये ताक़ीद की कि ठीक 10 बजे । क्योंकि 11 बजे, वह परिवार के लिए रोज़मर्रा का सामान खरीदने जाते हैं, ('परिवार' में अमृता की बहू, अलका और उनके बच्चे शामिल हैं) और उसके बाद बच्चों को स्कूल से लेने जाते हैं ।
हौज़ खास स्थित घर की ओर जाते समय, मैंने उनके लिए पीले गुलाब लिए कि वह उन्हें पसंद करेंगे ।
जब कार उनके दरवाज़े पर रुकी, मैं कुछ घबराई कुछ अभिभूत सी थी । बरसों से जिस घर के बारे में पढ़ती आयी थी आज उसी के सामने थी बस मेरी अमृता वहां नहीं थीं ।
लेकिन ज्यूँ ही घर के पते पर नज़र गयी तो देखा एक चट्टान पर कलात्मक रूप से 'अमृता प्रीतम K-25 हौज़ ख़ास' तराशा गया था । पत्थर पर अमृता प्रीतम यूँ लिखा था जैसे कोई शिला नहीं कागज़ हो जिस पर इमरोज़ ने अपने ब्रश से पेंट किया हो - वो नाम जो उनके - और मेरे ज़हन पर ताउम्र लिखा है!
इस पते ने अशांत मन को संभाल लिया और बरबस - अमृता की कविता जहां भी आज़ाद रूह की झलक पड़े, समझना वह मेरा घर है याद आ गयी ।
K मेरे नाम का पहला अक्षर है और 25 मेरी जन्मतिथि है! एक छोटी सी बात ने हमेशा से मन के इस विश्वास को और भी पुख्ता कर दिया था कि मेरे और मेरी अमृता के बीच कुछ तो रूहानी रिश्ता था ।
पत्थर की दीवार पर एक नाज़ुक सी लेकिन मुरझाई हुई बोगेनविला की बेल लिपटी थी, हर तरफ बेशुमार पौधे और एक उदास गुलमोहर का पेड़ था जिसकी पत्तियां ऊपर बने कमरे की खिड़की को सहलाती दिख रही थीं । बाद में मालूम हुआ कि वो अमृता का ही कमरा था ।
इस पत्थर से बने घर ने न जाने कितने एहसासात को जन्म दिया, अनगिनत अदीबों को ज़िन्दगी के मुख्तलिफ रुख दिखलाये ।
गर्मियों में जब बोगेनविला और गुलमोहर फूलते होंगे तो अपनी अमृता को कितना याद करते होंगे ।
तेज़ धड़कते दिल से मैंने घंटी का बटन दबाया और तुरंत ही सीढ़ियों पर हल्के क़दमों की आवाज़ सुनी । ये इमरोज़ साहब ही थे! सफेद कुर्ता पायजामा और शॉल पहने उन्होंने हल्की मुस्कान और हाथ जोड़कर मेरा स्वागत किया ।
सीढ़ियों से लेकर अंदरूनी हिस्सों तक, अमृता हर जगह थीं! इमरोज़ साहब ने उन्हें कई मूड, प्रोफाइल, उम्र में पेंट किया था! वह मुझे अमृता के कमरे में ले गए । उनका बिस्तर और सारा सामान करीने से सजा हुआ था - मानो वह अभी आएंगी और बिस्तर पर बैठ कर कुछ लिखेंगी - वह हमेशा अपने बिस्तर पर लिखती थी, मेज पर कभी नहीं ।
उनका कमरा, सेहेन और घर के वो सारे हिस्से जहाँ तक निगाह गयी - हर जगह अमृता मौजूद थीं ! कहीं इमरोज़ की पेंटिंग्स में उनका चेहरा था तो कहीं अमृता की किसी कविता को इमरोज़ के ब्रश का स्पर्श मिला था l दीवारों पर, कैनवास पर, ग्लास क्यूबिकल पर हर वो जरिया जिससे इमरोज़ रंग भर सकते, उन्होंने अमृता को मुख्तलिफ तरीकों से अपने पास बसा रखा था ।
एक नीचा दीवान वह था जहाँ वह सोते थे और एक नीची मेज जहाँ वह लिखते और पेंट करते थे । उन्होंने मुझे एक कुर्सी दी और अलका से चाय लाने को कहा, जिसे अलका ने एक बेहद खुशदिल मुस्कान और बिस्किट के साथ पेश की । वो याद वो समां वो वक़्त मेरे जीवन का एक बेहद खुशगवार लम्हा बन गए हैं ।
इमरोज़ साहब धीमे धीमे मुस्कुराते हुए बात करते रहे जो मुझे ज्यादातर याद नहीं । मैं तो बस यह सोच कर खुश थी कि कभी मेरी अमृता ने भी इसी जगह पर इमरोज़ के साथ चाय पी होगी, इस कुर्सी को छुआ होगा । जो पूछना था वो कुछ भी याद नहीं रहा । बल्कि मेरा दुस्साहस तो देखिये कि मेरे मुँह से बरबस निकला, "अमृता के जीवन में तीसरा आदमी बनकर आपको कैसा महसूस होता था"? उन्होंने धीमी मुस्कान बिखेरते हुए कहा- दूसरा, तीसरा क्या होता है? जहाँ मन मिले वही पहला !
इतनी सादगी से इतनी बड़ी बात कह गए! सच है दिलों का संगम ही तो है जो किसी को पहला और सबसे ज़रूरी, सबसे लाज़िम बना देता है! मैं बस मुस्कुराती रही, उनके मुँह से निकले हुए कुछ आशार की गहरायी और नरमी में ही मेरे सवाल का मुक़म्मल जवाब था ।
ये मलाल दिल में हमेशा रहेगा कि जिस घर में एक कलाकारऔर एक लेखक रंगों, अल्फ़ाज़ों, ख्यालों, तस्सवुर और कविताओं की दुनिया में एक साथ सम्पूर्ण सामंजस्य में रहते थे, उस जन्नत में मैं उन दोनों को साथ-साथ देखने से चूक गयी ।
मैंने उनसे कहा कि यह घर कितनी यादों से भरा हुआ होगा, और एक बार फिर इमरोज़ साहब ने मुझे यह कह कर हैरान कर दिया कि, "अमृता ने शरीर छोड़ा है, मुझे नहीं छोड़ा”!
इस बात के आगे कुछ भी कहना सुनना कोई मायने नहीं रखता था ।
मुझे एहसास हुआ कि मेरे जाने का वक़्त हो चला था मैंने उन्हें धन्यवाद दियाऔर उनसे ऊपर की मंजिल पर ही रहने का अनुरोध किया क्योंकि आंशिक रूप से उनके घुटने खराब थे और फिर मैं ये आशियाना एक बार फिर अपनी से ज़्यादा इमरोज़ साहब की नज़र से देखना चाहती थी ।
इस घर में मेरी अमृता ने इमरोज़ के आने से पहले कई ठंडी सर्दियाँ और कठोर गर्मियाँ बिताई थीं ।
उस घर और उसमे रहने वालों से विदा लेते हुए एक अथाह ख़ुशी और उतने ही दुःख ने मुझे घेर लिया । रंगों और शब्दों का एक नायाब रिश्ता जो चालीस से अधिक वर्षों से फलता-फूलता रहा और जो मेरे जैसे मुरीदों के दिलों में सदा खिलता रहेगा ।
एक बात-बार बार ज़हन में आती रही कि काश इस घर को एक म्यूजियम में तब्दील किया जा सकता । आज जब अमृता इमरोज़ दोनों ही नहीं हैं, वो घर भी बिक चुका है, तो इमरोज़ साहब से उस कोहरे में लिपटे हुए घर में वो गर्म-दिल मुलाक़ात किस क़दर याद आती है ।
अलविदा इमरोज़ साहब मेरी अमृता से मेरा सलाम कहियेगा ।
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सुश्री अस्मा सलीम, ब्रम्पटन, कैनेडा, फोन नं. +164788771160
इमरोज़-एक जश्न अपने रंग, अपनी रौशनी का
इमरोज़ से मेरी पहली मुलाक़ात 1991 में हुई थी । मैं अमृता प्रीतम का इण्टरव्यू करने गई थी । बाबरी मस्जिद हमारी बात-चीत का विषय था । मैं तब राष्ट्रीय सहारा में जॉब करती थी और मुझे असाइनमेंट मिला था कि मैं बाबरी मस्जिद मस्ले के हवाले से विभिन्न भाषाओं के बुद्धिजीवियों की राय, उनके विचार इण्टरव्यू के ज़रिए अपनी उर्दू पत्रिका के लिए इकट्ठा करूँ । पंजाबी ज़बान से मैंने अमृता प्रीतम को चुना था । वो नवंबर या दिसम्बर की कोई सर्द शाम थी जब मैं हौज़ ख़ास के उनके घर पहुँची । बाबरी मस्जिद के हवाले से बात करते-करते तमाम दूसरे मुद्दे भी कब गुफ़्तगू का हिस्सा बन गए, पता ही नहीं चला । इन मुद्दों में मुहब्बत, दोस्ती, समाज और बहुत कुछ शामिल था । उस रात जब तवील गुफ़्तगू के बाद मैं अमृता के कमरे से निकली और इमरोज़ मुझे दरवाज़े तक छोड़ने आए तो बातों-बातों में सीढ़ियाँ उतरते हुए मैंने उन्हें बशीर बद्र का ये शे'र सुनाया:-
"कोई फूल सा हाथ काँधे पे था,
मेरे पाँव शो'लों पे जलते रहे । "
और कहा... हाथ तो कोई नहीं लेकिन मेरे पाँव शो'लों पर चल रहे हैं । इमरोज़ ने कहा 'उस हाथ का तसव्वुर, उस हाथ की ख़्वाहिश तो है, उसे ख़त्म न होने देना । ' तसव्वुर के करिश्मे का उस वक़्त तो कुछ पता न था । ये तो बहुत बाद में मैंने देखा और मुझे समझ में आया कि "आलम तमाम हल्क़ा-ए-दाम-ए-ख़याल है । " दरअस्ल हमारी ख़्वाहिश, हमारा ख़याल, हमारी सोच, हमारा तसव्वुर क्या-क्या करिश्मे अपने अन्दर छुपाए रहता है और कब अपनी ही एक दुनिया तख़लीक़ कर लेता है, हमें पता ही नहीं चलता!
उस मुलाक़ात के बाद अमृता से तो मुलाक़ातों का सिलसिला चल ही निकला, इमरोज़ के साथ भी एक रिश्ता क़ायम होता गया और आहिस्ता-आहिस्ता मुझ पर खुलता गया कि इमरोज़ को पानियों की तरह मिटटी में भी जज़्ब होने का हुनर ख़ूब आता है । वह जज़्बाती भी हैं और अमली दानिश रखने वाले एक बेहद व्यवस्थित और व्यावहारिक शख़्स भी । हम में से ज़्यादा तर लोग सिर्फ़ ख़्वाब देखना जानते हैं । इमरोज़ को अपने ख़्वाबों को हक़ीक़त में ढालना भी आता है । अमृता के पास रौशनियों के टोकरों, नूर के झाबों का तसव्वुर था, मगर इमरोज़ ने तो इसे सच कर दिखाया था । टोकरों में ख़ूबसूरत छोटे-छोटे बल्ब, और चराग़ इस फ़नकाराना ढंग से सजाए थे और पेंट किए थे कि वे जलते तो लगता था कि जैसे किसी ने नूर का टोकरा भर कर रख दिया है । हर खिड़की हर दरवाज़े को शायरी और पेन्टिंग्ज़ से सजाया था । सिर्फ़ कैनवस पर ही नहीं लैम्पों पर भी ढेर सारे शे'र और नज़्में पेंट की थीं । लैम्प जलते तो पेंट किए हुए शे'र भी जगमगा उठते थे । यह उनके मिज़ाज की रचनात्मक अभिव्यक्ति थी, फ़नकारी थी जो उन की हर-हर चीज़ में झलकती थी मगर इस कलात्मकता से भी बड़ा काम होता है इंसान का ख़ुद अपनी मिट्टी को गूँधना । अपनी ख़्वाहिश के मुताबिक़ ख़ुद को दोबारा जन्म देना, चाक पर अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ अपनी मिट्टी को आकार देना और यह सृजनात्मक कार्य भी इमरोज़ ने अपने साथ बख़ूबी अंजाम दिया था ।
समाज का एक तय शुदा साँचा होता है जिसके तहत हमारे जन्म के साथ ही हमारा नाम, मज़हब, हमारी शिनाख़्त तय हो जाती है और हम सारी ज़िन्दगी उन ज़ंजीरों से बँध कर गुज़ार देते हैं जिनको चुनने में हमारा कोई हाथ नहीं होता । "नाहक़ हम मजबूरों पर ये तोहमत है मुख़्तारी की । " इस शिनाख़्त से कई बार हमारी अनबन बल्कि विरोध तक होता है लेकिन अपने नाम, मज़हब या पहचान की किसी भी बाहरी शक्ल को तब्दील करना हमारे लिए अमूमन बेहद मुश्किल होता है । ये चीज़ें हमारी शख़्सियत का ऐसा अटूट अंग बन जाती हैं कि इनके बग़ैर हम अपने आप को अक्सर सोच ही नहीं पाते । इमरोज़ की ज़िंदगी की अहमतरीन बात यही है कि उन्होंने इस तय शुदा साँचे से बग़ावत की, उसे तोड़ा । इमरोज़ ने ख़ुद से ख़ुद को जन्म दिया । उनका नाम यूँ तो इन्द्रजीत था मगर वह अपने नाम के साथ अपने आपको जोड़ कर नहीं देख पाते थे, उनका अपने बारे में जो विज़न था, यह नाम उस पर पूरा नहीं उतरता था । सो उन्होंने अपना नाम इन्द्रजीत से बदल कर इमरोज़ रख लिया । इस नाम की अपनी अर्थवत्ता है, भूत और भविष्य से अलग लम्हा-ए-मौजूद या'नी, वर्तमान क्षण में रहना, आज में रहना । न बीते हुए से लगाव न भविष्य से जुड़ाव ।
उनकी पहचान एक आर्टिस्ट के तौर पर तो है ही, लेकिन उनकी पहचान का एक हवाला अमृता भी हैं और यह हवाला इतना मज़बूत है कि इससे अलग उनको देख पाना अमूमन मुश्किल लगता है । लेकिन जो इमरोज़ को क़रीब से जानते हैं वे इमरोज़ के अपने रंग, रौशनी और रक़्स को पहचानते हैं और ये ऐसे रंग हैं जिनके प्रभाव बल्कि प्रभा-मंडल से निकल पाना नामुमकिन है । अमृता भी इन रंगों के प्रभाव मंडल में थीं । यहाँ तक कि जब वह कोमा में थीं, तब भी बेहोशी के आलम में इमरोज़ ही को आवाज़ देती थीं और इमरोज़ उनकी हर सदा पर लब्बैक (मैं हाज़िर हूँ) कहते थे । सच तो यह है कि इमरोज़ न होते तो शायद अमृता वह न होतीं या उस तरह न होतीं जिस तरह आज हम उन्हें जानते हैं ।
इमरोज़ की मिट्टी का गुदाज़, लोच और लचक देख कर हैरत होती है कि कोई इतना सहज भी हो सकता है । लोग चाहे जो कहें, वे तक़रीबन हमेशा इमरोज़ को अमृता के चश्मे से देख रहे होते हैं जबकि इमरोज़ को उनके मर्कज़ से, उनके केन्द्र से देखे जाने की भी उतनी ही ज़रूरत है । एक बार उन्होंने कहा था कि सारी दुनिया को तो आप ख़ुश नहीं रख सकते, अगर ज़िंदगी में एक ही शख़्स को ख़ुश रख सकें, उसे अपनी ज़ात से शिकायत न होने दें तो यह भी बहुत बड़ी बात है । किसी को ख़ुश रखने की कोशिश करें तो इस मन्ज़िल की तरफ़ क्या-क्या सख़्त मक़ाम आते हैं, इस बात को वही समझ सकते हैं जिन्होंने ऐसा किया हो । इमरोज़ की ज़िंदगी में वह एक शख़्स अमृता थीं जिन्हें ख़ुश रखना उनकी पहली ख़्वाहिश भी थी और कोशिश भी । इसके लिए वह अपनी तमाम उम्र कोशिशें करते रहे और अपनी इन कोशिशों में अमृता के लिए एक पनाहगाह बन गए । एक ऐसी पनाहगाह जहाँ अमृता और इमरोज़ टकराए बग़ैर एक-दूसरे के साथ रहते थे । ऐसा करने के लिए उन दोनों ही ने मेहनत की । दोनों ही का अपना-अपना मिज़ाज था और दोनों को यह अंदाज़ा था कि वे किस तरह की ज़िंदगी गुज़ारना चाहते हैं, कैसे जीना चाहते हैं । मुहब्बत की दास्तानें हमने सिर्फ़ सुनी भर थीं । हमारी कई लीजेंड्री मुहब्बत की दस्तानें पंजाब से जुड़ी रही हैं । अमृता और इमरोज़ के रूप में हमने मुहब्बत की एक दास्तान को परवान चढ़ते, हक़ीक़त बनते देखा है । अमृता और इमरोज़ एक-दूसरे के आशिक़ भी हैं और माशूक़ भी । इस दास्तान का ख़मीर पंजाब से उठा लेकिन इसने दिल्ली की गलियों में परवरिश पाई ।
अमृता के बच्चों ने इमरोज़ को क़ुबूल नहीं किया था और यह बात उन्हें मालूम थी । लेकिन इसके लिए उन्होंने कभी शिकायत नहीं की, कोई बदगुमानी बच्चों की तरफ से दिल में नहीं आने दी । बल्कि ख़ुद ही इन हालात को बेहतर बनाने के लिए जो कुछ कर सकते थे, करते रहे, जिस तरह मदद दे सकते थे, देते रहे । इन सब में अमृता की बहू अलका ने उनका साथ दिया । ख़ास तौर पर जब अमृता बिस्तर से लगीं तो अल्का और इमरोज़ दोनों ने मिल कर उनकी तीमारदारी की ज़िम्मेदारी उठाई । इस दौरान जब अमृता का बात करना मुमकिन न रहा तो इमरोज़ ने नज़्में लिख कर अपने इज़हार को राह दी । इमरोज़ की शाइरी अमृता से इसी मुकालमे के ख़ला को पुर करने की कोशिश है । इसमें औरत के बारे में, कायनात के बारे में जो कुछ उनके तसव्वुरात हैं, उनके अक्स मौजूद हैं और इसका तजर्बा जो कुछ उन्होंने जिया है, उससे अलग नहीं है ।
हमारे समाज में मर्द की जो हैसियत है, उसमें उसका इंसान होना उसके मर्द होने की श्रेष्ठता की भावना में गुम है कि उसको एक ख़ास इख़्तियार और विशिष्टता हासिल है । ठीक उसी तरह जैसे औरत होने में ऐसी कमज़ोरी और मजबूरी शामिल कर दी गई है कि वह इंसान होने का, अपने मुकम्मल वुजूद होने का एहसास तक नहीं कर पाती । इमरोज़ ने कभी ऐसी कोई रुकावट दरमियान न आने दी । वो घर के काम हों या बाज़ार के, दोनों ही जगह वो बिना किसी हिचकिचाहट, किसी तकल्लुफ़ के अपनी ज़िम्मेदारी निभाने वालों में से थे । घर में अमृता से मिलने वालों का आना जाना लगा ही रहता था । इमरोज़ उन सब की ख़ातिरदारी भी करते और इन सब के बीच अपना काम भी जारी रखते थे । वह किताबों के शीर्षक पृष्ठ बनाते थे । यही उनकी रोज़ी का साधन था । एक बार उन्होंने सर वरक़ (शीर्षक पृष्ठ) बनाने की फ़ीस में इज़ाफ़ा किया तो कहने लगे 'इस साल मैंने अपने आप को प्रमोशन दे दिया है । '
जब अमृता और इमरोज़ की मुलाक़ात हुई थी, इमरोज़ की आमदनी अमृता से ज़्यादा थी । अमृता उस वक़्त माली तौर पर जद्दोजहद कर रही थीं । रेडियो पर मुलाज़मत करती थीं और किताबों से उनकी कोई ख़ास आमदनी नहीं थी । वक़्त बदला और अमृता की आमदनी में इज़ाफ़ा हो गया, किताबों से रॉयल्टी भी अच्छी आने लगी । लेकिन आमदनी की कमी बेशी कभी उन दोनों की ज़िंदगी में रुकावट नहीं बनी ।
नाम और शोहरत की ख़्वाहिश किसे नहीं होती, ख़ास तौर पर अपने फ़न, अपने हुनर के हवाले से हर फ़नकार अपनी पहचान चाहता है लेकिन इमरोज़ के यहाँ फ़न को अपने नाम में क़ैद करने का कोई तसव्वुर नहीं रहा । फ़न उनके लिए बहते पानी जैसा, वर्तमान क्षण में जीने जैसा मुआमला रहा है । फ़न पर नाम के नक़्श-ओ-निशान की उनके यहाँ कोई ख़्वाहिश, कोई गुंजाइश नहीं रही । एक बार इस बारे में उनसे गुफ़्तगू हो रही थी तो मैंने पूछा कि आप अपनी तस्वीरों पर कहीं अपना नाम क्यों नहीं देते । उनका जवाब था कि 'इतनी बड़ी कायनात ख़ुदा की पेंटिंग ही तो है । इस पर उसने अपना नाम कहाँ लिखा है जो मैं लिखूँ!!' सच यह है कि इमरोज़ ने अपनी पेन्टिंग्ज़ में, किताबों के मुख्य पृष्ठों में, रंगों और लकीरों के साथ जो तजर्बे किए हैं वो उनका अपना अंदाज़ है । रंगों का संयोजन और लिखने का अंदाज़ अलग से पहचाना जाता है ।
इमरोज़ को कैलीग्राफ़ी का शौक़ था । अपने पसंदीदा शायरों, अदीबों के नाम उन्होंने तरह-तरह से लिखे हैं । उनमें एक नाम पंजाबी सूफ़ी शायर सुल्तान बाहू का है । बाहू का नाम उन्होंने इस तरह लिखा है जैसे किसी का पाँव हो और उसमें हर उँगली की पोर से रौशनी फूट रही है । इस तरह कि जहाँ-जहाँ क़दम रखते हैं वहाँ-वहाँ रौशनी फैलती जाती है । मैं इमरोज़ के बारे में जब भी सोचती हूँ तो मुझे यह पेंटिंग याद आती है और यह ख़याल आता है कि इमरोज़ ने ज़िंदगी में जहाँ-जहाँ क़दम रखे, चाहे घर-आँगन हो या मन-आँगन, वह जगह रौशन हो गई, मुहब्बत और सहजता से भर गई, वहाँ ज़िंदगी का जश्न जारी हो गया और इसका सिलसिला उनके जाने के बाद भी ख़त्म नहीं होने वाला ।
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अपनी ब्याहता का इमरोज़, अपूर्व कुमार, सुनो हे पुरुषों! प्रेम में तुम बन सकते हो किसी लैला के मजनू, किसी हीर के राँझा, किसी शीरी के फरहाद, अथवा किसी जूलीयट के रोमियो भी किसी रोज ! पर सच-सच बतलाना, क्या तुम बन सकोगे, अपनी ब्याहता के इमरोज़! यह जानते हुए भी कि, अमृता का एक, पहले से ही प्रीतम है, जो उसका शौहर है, यह जग जाहीर है! और तो और, अमृता की आत्मा में, लुधियाने वाला साहिर है! वह बैठती तो स्कूटर पर, इमरोज के पीछे है, पर चलाती उसके, स्वेटर की पीठ पर उंगलियाँ, लिखते हुए साहिर का नाम, यह जानते हुए कि, इमरोज़ है चित्रकार, वो भाँपने में माहिर है! तथापि इमरोज, प्रेम के मर्म को समझता है, प्रेम के प्रेम का सम्मान, अपना धर्म समझता है । उसने तो अमृता संग आजीवन निभाया प्रीतम के प्रति संबध भी! और साहिर के, मौन प्रेम का अनुबंध भी! इमरोज़ ने साहिर की यादों को, झाड़ दिया, सिगरेट के राख की तरह, यह जानते हुए कि, कभी अमृता बुझाती थी, अपने एकतरफे प्रेम की आग, साहिर की अधजली सिगरेट को सुलगा! और उसे अमृत समझ, अपने अधरों से लगा! हाँ, इमरोज़ ने, उससे था प्रेम निभाया, जो ब्याहता थी किसी और की, चाहती थी किसी और को, और रहती थी इमरोज़ के साथ । विरले ही जन्म लेता है ऐसा प्रेमी! हे पुरूष ! हो सके तो तुम भी, प्यार में इमरोज़ हो जाना ! अपनी ब्याहता का इमरोज़! उस रोज, जब पाना कभी तुम उसके भीतर अहंकार का प्रीतम और नादानियों का साहिर ! वैसे आसान नहीं होता प्यार में इमरोज़ होना । जो हो गया, समझो, रसीदी टिकट, महाकाव्य हो गया! ~~~~~ -अज्ञात
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इश्क़ में ऐसे भी मरता है आदमी...
उमा त्रिलोक की किताब "अमृता इमरोज़ एक प्यार कहानी" अभी अभी पढ़ कर चुका हूँ । अमृता प्रीतम के जीवन के आख़िरी पढ़ाव में मिली उमा त्रिलोक ने, अमृता इमरोज़ से हुई मुलाक़ातों और गुफ़्तगुओं के आधार पर इस प्रेम कथा की कई परतों को खोला और खंगाला है । जिस का अनुवाद जसबीर भुल्लर ने किया है ।
ऐसा लगता है, आज से 45 साल पहले, विवाह की परंपरा का उल्लंघन करना, आख़िरी साँस तक प्यार निभाने का प्रण पूरा करना, प्रेम को नए अर्थ देना, इस नावेल का आधार है । परंतु क्या यह सच है कि सिर्फ़ इमरोज़ का अमृता के प्रति प्यार की इंतहा ही थी कि उसने अपने आप को पूरी तरह मिटा कर ख़ुद को अमृता को अर्पित कर दिया ।
मैं जब ये नावेल पढ़ रहा था तो मेरे मन में बहुत से प्रश्न उत्पन्न हुए जो इस प्रेम कथा के बीच की घटनाओं की परतों को खोलते हुए पैदा हुए, जिन्हें खँघालते, बहुत कुछ उजागर हुआ ।
साहिर लुधियानवी के मुंबई जाने के बाद, जब इमरोज़ ने अमृता को अपने मुंबई जाने के बारे में बताया तो अमृता को ऐसा लगा कि अब तक जो उसे मिला हुआ था वह भी साहिर की तरह हमेशा के लिए खो जाएगा, तो उसने इमरोज़ को अपने प्यार का वास्ता देकर, भावनात्मुक रूप से इतना उत्तेजित किया कि वह तीसरे दिन ही मुंबई से दिल्ली आकर हमेशा के लिए अमृता का हो गया, जो क़रीबन आधी सदी चला ।
इमरोज़ ने अपना समूचा कैरीअर ही दाव पर लगा दिया । कमाल इस बात का है कि अमृता की शोहरत के सामने उसने अपने आप को जीरो बना लिया, जब कि अमृता को मिलने से पहले फ़िल्मी जगत में उसका बड़ा नाम था ।
सवाल यह है, कि अमृता ने इमरोज़ को अपनी छाया से बाहर निकल कर अपनी विलक्षण प्रतिभा को संसार के आगे प्रस्तुत करने के लिए क्यों प्रेरित नहीं किया ? क्या उसकी प्रतिभा कमरे के बीच में रह कर आहें नहीं भरती होगी, जिस ने संसार में कई और प्रतिभाओं को प्रभावित करना था और जिस ने अपने कलामयी रंगों से समूचे कला जगत में नयी पेशबंधियाँ करनी थीं ? कितना मुश्किल होता है किसी इंसान के लिए अपने आप से विमुख हो कर समर्पित कर, ख़ुद बेआस हो कर जीना ? किसी को भी सृजन करने और जगज़ाहिर होने के लिए एक माहौल की ज़रूरत होती है, वह माहौल अमृता ने इमरोज़ को क्यों नहीं दिया ।
इमरोज़ स्कूटर चला रहा है और पीछे बैठी अमृता, अपनी उँगली से उस की पीठ पर साहिर का नाम लिख रही है, इसके माइने कितने वसीह हैं । क्या अमृता इमरोज़ के साथ सिर्फ़ बाहरी संसार में विचरती हुई अंदर से साहिर के साथ जुड़ी रही । क्या यह इमरोज़ के सच्चे प्यार की तौहीन नहीं थी ? कैसे इमरोज़ का अंतःकरण चूर चूर हुआ होगा जब उसको अपनी पीठ पर साहिर लिखे अक्षरों का एहसास हुआ होगा ? कैसे वह जीते जी मरा होगा और साथ ही जीने का भ्रम भी पाल रहा होगा । कैसे प्यार की पाकीज़गी पर सवालिया निशान लगा होगा ? कहाँ थी अमृता की इमरोज़ के प्रति प्रेम की भावना ? इस मानसिक भूचाल की हलचल के बाद कैसे सम्भला होगा इमरोज़ ? क्या सचमुच अमृता, इमरोज़ के प्रति दियानतदार थी ? इमरोज़ का अमृता के प्रति समर्पण ?
प्यार का कैसा कमाल था कि जब भी अमृता को किसी सम्मान समारोह या खाने पर बुलाया जाता तब इमरोज़ बाहर उसका इंतज़ार करता और समागम के बाद उसे घर ले जाता । अमृता में क्यों इतनी भी हिम्मत नहीं थी कि जिस शख़्स को उसने अपना सब कुछ मान लिया हो, उसे भी अपने साथ अंदर ले जाती । या क्या अपने मान सम्मान और मिल रही प्रशंसा को वह सिर्फ़ अपने तक ही सीमित रखना चाहती थी । क्या इमरोज़ उसकी भावनात्मक, शारीरिक व सामाजिक ज़रूरतों को पूरा करने का साधन मात्र था ? लोगों से मिलने जुलने वाली अमृता की, क्या छवि बिगड़ जाती ? क्या उसके कई रूप थे जिन्हें वह अपनी ज़रूरतों के अनुसार धारण कर लेती थी ?
किसी सम्मान समारोह में, , इमरोज़ को कोई जब “ अमृताज़ केप्ट मैन “ कह देता है तो ज़रा सोचिए, क्या बीती होगी इमरोज़ के मन पर, जब कि इमरोज़, आर्थिक और समाजिक रूप से अमृता से बेहतर स्थिति में था, जिसे अमृता के ग़ुलाम की उपाधि से नवाज़ा जा रहा था । क्या अमृता ने इस बात को मामूली बात ही माना और कोई प्रतिक्रिया नहीं दी ? कितना टूटा होगा इमरोज़ का मन यह सुनकर, चाहे दुनिया के सामने उसने इसे अनसुना ही कर दिया हो, पर मन में उठी टीस तो बेक़ाबू हुई ही होगी ।
इमरोज़ का इस प्रकार रोज़, बार बार मरना और जीना पाठक को बहुत पीड़ा देता रहा है । प्यार की पाकीज़गी के लिया सब कुछ निछावर करने की आरज़ू को सलाम ।
अमृता के बेटे की बारात जाने के समय, इमरोज़ को कहा गया कि वह बारात में नहीं जा सकता । कितनी नमोशी हुई होगी इमरोज़ को उस वक्त । क्या यही सिला था उमर भर की यारी का ? अमृता के बच्चों को स्कूटर पर बैठा कर स्कूल ले जाना, ले आना, तीमारदारी और परवरिश करने का क्या यही मिला था उसे सिला ? सवाल यह है कि, उस पल अमृता का क्या रोल था? क्यों वह यह सब मूक दर्शक बनी, देखती रही ? क्या वह अपने बेटे के सामने लाचार थी, या समाज में बदनामी से डर गई थी ? उसकी धौंस और प्यार को निभाने की क़सम, कहाँ गई ? क्या इतने सालों का साथ केवल दिखावा था ? उसके लिए इमरोज़ के प्यार का अर्थ, अपने बेटे के सामने निरर्थक हो गया था क्या ? और उधर इमरोज़ ने यह कह दिया कि बारात में न जाने का फ़ैसला ख़ुद उस ने ही किया है, कह कर ड्रामा किया, दिखावा किया, बस पर्दा डाला ।
इमरोज़ सारी उमर, अमृता की आख़री साँस तक, उसकी तीमारदारी में ही ख़ुशी ढूँढता रहा । इमरोज़ अपनी भावनायें प्रकट करने या किसी प्रकार के मान सम्मान पाने से कहीं ऊपर उठ चुका था, पर ऐसी अवस्था अमृता का क्यों नहीं थी । उसने साहित्य जगत में बहुत मान सम्मान और उपाधियाँ तो प्राप्त कर लीं थीं लेकिन कभी इमरोज़ के मन में झांक कर, क्यों नहीं देखा कि उसकी प्रतिभा को भी मान सम्मान मिलना चाहिए था, वह भी समाज में सत्कार का पात्र बने, उसके लिए भी सम्मान समारोह का आयोजन हो । क्या इसमें अमृता की स्वार्थी सोच प्रकट नहीं होती ? इस प्रेम कहानी में से कुछ ऐसी परतें खुली हैं कि अमृता, इमरोज़ की प्रतिबद्धता को पूर्ण रूप से समझ ही नहीं सकी और इमरोज़ के भीतर निजता की कुछ ऐसी भावना उस पर हमेशा भारी रही कि वह दिन में पता नहीं कितनी बार मरता और जीता रहा लेकिन अपना प्यार निभाता रहा ।
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अब न कोई दूसरी अमृता होगी और न दूसरा इमरोज़...
अमृता प्रीतम ने जब 2005 में दुनिया को अलविदा कहा तो मुझे लगा कि इमरोज़ भी उनके शोक में उनके साथ चले गए होंगे ।
जिस इमरोज़ से लगभग 2001 या 2002 के आसपास हौजख़ास दिल्ली में उनके घर पर मिली थी । वह मोहब्बत का फरिश्ता कम किसी दरवेश की तरह लगे थे । सफ़ेद कुर्ता पायजामा, आधे सफ़ेद आधे काले बाल चेहरे पर चमक और आंखों में तेज़, मुंह पर हल्की सी मुस्कान ... ।
दरअसल मैं मिलने और देखने तो अमृता प्रीतम को गयी थी पर अमृता अपने सेंस में नहीं थी ।
अनगिनत किताब, कहानियां, संस्मरण, उपन्यास लिखने वाली अमृता जो 'नागमणि' पत्रिका भी निकालती थी़ ।
जिसने पाकिस्तानी शायरा 'सारा शगुफ्ता' के ख़तों के ज़रिए एक बेहतरीन ख़ूबसूरत रिश्ता कायम किया । न केवल उससे बहनापा निभाया बल्कि उसके साथ एक मनोचिकित्सक की भूमिका भी निभाई और 'एक थी सारा' किताब भी संपादित की ।
ख़ुद वही अमृता इस बात से भी अनजान थी कि वह अमृता प्रीतम है । वह सबकुछ भूल चुकी थी । ख़ुद को भी भूल चुकी थी तो अपना लिखा क्या याद रखतीं ।
उन्हें अगर कुछ याद था तो सिर्फ़ इमरोज़ ।
इमरोज़ यह नाम भी अमृता ने दिया था । जिनको लेकर लोगों में यह भी चर्चा थी कि इमरोज़ कोई मुस्लिम शख़्स होगा ।
इमरोज़ दरसअल पंजाब के एक गांव का इंदरजीत सिंह नाम का लड़का था । जो चित्र उकेरा करता था ।
वहीं कहीं पंजाब में ही अमृता प्रीतम की एक कहानी पढ़कर प्यार में पड़ गए ।
तब अमृता को कहां पता था कि कोई ऐसा पागल हो सकता है । जब अमृता प्रीतम से वह पगड़ी वाला सरदार लड़का मिला तो अमृता के ख़्यालों में भी यह नहीं था कि वह न केवल उनके नाम से बल्कि उनकी ज़िंदगी से जुड़ जायेंगे और ऐसे जुड़ जायेंगे कि पूरी दुनिया में मर के भी यह नाम मशहूर हो जायेगा ।
22 दिसम्बर 2023 की सुबह-सुबह उमा त्रिलोक जी के पोस्ट से पता चला कि इमरोज़ नहीं रहे ।
तुरंत उन्हें फ़ोन लगाया । बदकिस्मती से उन्होंने ख़बर की पुष्टि की ।
एक समय था जब लोग इमरोज़ से मिलने या बात करने के लिए मुझसे उनका मोबाइल नंबर मांगा करते थे ।
यह लगभग 2005 से 2015 तक की बात रही होगी ।
अमृता प्रीतम से बहुत जद्दोजहद के बाद मिलने का मौक़ा मिला था मुझे लेकिन जब उन्हें एकदम बदहवास या बेहोशी की हालत में देखा तो बहुत दर्द हुआ था । उनका लिखा इतना कुछ पढ़ने और उन्हें जानने के बाद बिस्तर पर उन्हें जिस हाल में देखा दिल बैठ गया था । मेरे चेहरे की मायूसी को देखकर इमरोज़ ने
कहा - इसी वास्ते मैं मिलने से मना कर रहा था तुझे ।
तेरे तसव्वुर में जो अमृता है, वही ज़ेहन में रहे । आज के बाद तेरी यादों में एक ऐसी भी अमृता रहेगी जो तुझे अच्छी नहीं लगेगी । यह बात दुख देगी हमेशा ।
इमरोज़ उनके सिरहाने बैठे उनके सर पर हाथ फेरते और बीच-बीच में उनसे बातें करते ।
मैंने पूछा कि क्या वो आपकी बातें सुन पा रही हैं या समझ सकती हैं?
न सुने, न समझे । मैं तो बोल सकता हूं । हेअं!
वो अमृता से पूछ रहे हों जैसे...
इमरोज़ बोले - वैसे मेरा नाम लेकर बीच-बीच में मुझे पुकारती है । इसे केवल मैं ही याद हूं । ।
और मेरी आंखों से आंसू ढलक गए ।
कोई ऐसे कैसे प्यार कर सकता है ।
उम्र में उनसे लगभग पंद्रह साल छोटे इमरोज़ अमृता के लिए उनकी मां जैसी बन गए थे । शायद मां भी इतना न कर पाती ।
नहलाना, बाल बनाना यहां तक कि बिस्तर पर ही खिलाना पिलाना सबकुछ ...
जबकि उनके घर में साथ में बहू भी थीं और उनके बच्चे यानी पोता-पोती भी ।
पर वो किसी और को नहीं सिर्फ़ इमरोज़ को खोजतीं और खोजे भी क्यों नहीं उस सरदार लड़के ने अमृता के इश्क में पगड़ी फेंक बाल जो कटवा लिए थे ।
अमृता ने कहा था - 'तु मेरा आज है और इमरोज़ का अर्थ होता है 'आज' ।
इमरोज़ नहीं रहे, यह सुनकर लगा । वह अब तक ज़िंदा ही कैसे रहे । जिनकी हर बात में, हर सांस में अमृता थी । वह उनके जाने के बाद अट्ठारह साल कैसे काट पाये । उन्हें तो जाना ही था । इतना लम्बा इंतजार...
इतनी देर क्यों कर दी आने में! अमृता पूछ रही होंगी ।
एक जगह अमृता ने लिखा था कि 'तुम मुझे ज़िन्दगी के शाम में मिले । यानी देर से । '
यह शिकायत भी किया होगा और डांट भी लगाई होगी कि मेरे पास आने में इतनी देर क्यों लगा दी तुने ।
जिस इमरोज़ के जाने पर पूरा साहित्य जगत उन्हें श्रद्धांजलि दे रहा है । शोक मना रहा है और लिख रहा है । इश्क़ का फरिश्ता, देवता, मसीहा जाने क्या-क्या लिख रहे हैं, उसी इमरोज़ की मौत पर अंतिम यात्रा में मुश्किल से पंद्रह लोग होंगे ।
22 दिसम्बर को इमरोज़ के मोबाइल पर जब फ़ोन किया तो उनकी पोती ने फ़ोन उठाया और बताया कि कांदिवली के एक श्मशान भूमि में उनका अंतिम संस्कार दिन के बारह बजे किया जाएगा ।
मैं वहां ठीक बारह बजे पहुंच गयी ।
वहां कोई नहीं था हालांकि मैंने सोशल मीडिया पर यह ख़बर डाल दिया था । मेरे संपर्क में जो पत्रकार थे, उन्हें भी फ़ोन करके बताया ।
श्मशान में पंहुच कर वहां जो कुछ लोग दिखे उनसे पूछा तो किसी को पता नहीं था कि कौन इमरोज़ ।
कुछ लोगों से पूछने पर उन्होंने बताया कि वो किसी 'अन्य' की दाह संस्कार में आए हैं ।
उसी में से किसी ने बताया कि ऑफिस में जाकर पता कीजिए ।
मैंने आफिस में जाकर पूछा तो उसमें से एक ने मुझसे पूछा - मरने वाला का क्या नाम है?
मैंने कहा - जी इमरोज़ ।
वो चौंक कर बोले - यह हिन्दुओं की जगह है । मुसलमान यहां क्यों लाया जायेगा!
मैंने फिर कहा - जी वह हिन्दु ही थे ।
फिर से उन्होंने रजिस्टर देखा और देखकर कहा- हां हां कोई इमरोज़ का नाम है तो!
एक बजे की इमरोज़ के लिए बुकिंग है ।
आने वाले होंगे ।
मैं चुपचाप धर्मशाला में वहीं एक कोने में बैठ गई । देर होते देख फिर से उसी नम्बर पर फ़ोन लगाया
पिछले कुछ सालों में कई ऐसे मेरे जानने वाले दुनिया से चले गए जिनकी मौत की सूचना के संदेह को दूर करने के लिए उन्हीं के मोबाइल पर फ़ोन करके पूछती और सामने से वह जानी पहचानी आवाज़ नहीं बल्कि कोई अनजानी आवाज़ बताती है - हां जी, सही सुना!
यह एक अलग किस्म का मानसिक आघात है ।
मेरे लिए इसका बयान मुश्किल है । मरने वाले से उन्हीं के फ़ोन पर संवाद, किसी अवसाद से कम नहीं है ।
बहरहाल इस हादसे को भी बर्दाश्त करना था, जो कि मेरे बस से बाहर था और फिर से उनकी पोती ने ही फ़ोन उठाया और बताया कि हम निकल चुके हैं । दस मिनट में पंहुच रहे हैं ।
एक एम्बुलेंस में इमरोज़ लाए गए । साथ में कुछ लोग थे । बहु अलका भी साथ थीं । बहुत रो रहीं थीं ।
जबकि न बहु सगी थीं । न पोते-पोती ।
यह सब मन से माने हुए रिश्ते थे । क्योंकि इमरोज़ ने न अमृता से शादी की थी, न ही उनके कोई बच्चे थे ।
अमृता की शादी प्रीतम सिंह जी से हुई थी और उन्हीं से उनका एक बेटा थे 'शैली । ' जो कि एक फ़ोटोग्राफ़र थे ।
इमरोज़ ने हंसते-हंसते एक बार मुझसे बताया था कि जब अमृता और इमरोज़ की आपसी नज़दीकी बढ़ रही थीं, तब शैली जो कि जवान हो रहे थे । उन्होंने बहुत शरारतें की थी कि अमृता-इमरोज़ एक दूसरे के नज़दीक नहीं आ पाएँ । हंसते हुए कहा - उसने मुझे भगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी । पूरी कोशिश लगा दी मुझे उसकी ज़िन्दगी से भगाने की । पर क़िस्मत में हमारे मिलना लिखा था ।
और अब हम सब साथ इकठ्ठे रह रहे हैं ।
ऐसा लगता था इमरोज़ ने इश्क़ का पैकेज लिया था, जिसमें अमृता समेत उनकी तमाम दुःख, परेशानियां, दुश्वारियां और न जाने क्या क्या... सब ले मोल ले लिया था ।
क्योंकि एक महा पाखंडी समाज में एक शादीशुदा औरत का पति को छोड़कर अपने से उम्र में किसी छोटे लड़के के साथ पूरी उम्र बिना शादी के रहना । इस समाज के बर्दाश्त के बाहर की बात तो रही ही होगी ।
और इसे अमृता इमरोज़ ने आसानी से तो नहीं ही झेला होगा । जितना आसान लगता है । मोहब्बत के इस किस्से ने पता नहीं कितना कुछ सहा होगा, या झेला होगा ।
तब वो लोग हौजखास दिल्ली में रहा करते थे ।
अमृता की हर चीज़ मेरी है । बच्चे भी । कहना चाहिए मेरी नहीं बल्कि हमारी ।
हम दोनों के बीच में मेरा - तेरा कुछ भी नहीं था ।
सब हमारा था । हम अलग-अलग शख्सियत थे ही नहीं । कुदरत ने हमें एक बनाया और मिलाया ।
इमरोज़ ने एक बार मुझसे कहा था ।
2005 में अमृता नहीं रहीं ।
मैंने पूछा था - अब बहुत ख़ालीपन खलता होगा उनके बग़ैर ।
उन्होंने बिना एक पल गंवाए कहा - 'गयी कहां है । यहीं है । इसी घर में । हमारे साथ । हमारे पास । हमारी रूह
|में । मैं सांस लेता हूं उसमें है । हर जगह, हर तरफ़ है । '
मैं ख़ामोश होकर उनका मुंह निहार रही थी ।
मुझे लगा कि शदाई हो गये हैं । पर वह तो जैसे प्रेम के चरम पर पहुंच गये थे । जैसे आध्यात्म में डूबे इंसान का चेहरा होता है ।
अमृता प्रीतम के घर को एक सुंदर आर्ट गैलरी की तरह सजा रखा था ।
दिल्ली में हमारे एक मित्र के । के कोहली साहब ने अमृता साहिर और इमरोज़ की प्रेम कहानी पर एक नाटक किया था । जिसमें लवनीन जी मुख्य भूमिका में थीं ।
हम इमरोज़ के साथ ही नाटक देखने गए थे । अगल -बगल की सीट पर बैठे मैंने कई बार इमरोज़ को आंखें पोंछते हुए पाया ।
कुछ संवादों पर हम एक-दूसरे का हाथ पकड़ लेते । मुट्ठी कसकर एक दूसरे को थामे । लवनीन जी में अमृता को देखते हुए मैं यह सोच रही थी कि अमृता आख़िर किसकी थी?
जानी वो अपने पति 'प्रीतम सिंह' जी के नाम से गयीं । मोहब्बत 'साहिर लुधियानवी' से की और रहीं इमरोज़ के साथ ताउम्र ।
अमृता शायद बंटी रहीं । कई हिस्सों में... पर इमरोज़ सिर्फ़ और सिर्फ़ अमृता के ही रहे । पर अमृता के बंटे होने से कभी उन्हें अमृता से कोई शिकायत नहीं हुई ।
उनके हिस्से में जितनी अमृता थीं, वह उनके लिए मुकम्मल थीं ।
इमरोज़ ने अमृता की जुदाई में सबकुछ बर्दाश्त किया और अपनी भूमिका एक पिता और ससुर की तरह
निभाया ।
इतना सब देखते, इमरोज़ को जानते-समझते हुए हर बार मुझे लगता आख़िर यह बंदा किस मिट्टी का बना हुआ
है ।
इमरोज़ बीच बीच में अपने गांव पंजाब भी चले जाते । फिर कभी दिल्ली उसी घर में । जहां चप्पे-चप्पे में अमृता की ख़ुशबू और रूह बसी हुई थी ।
2015 में अमृता प्रीतम जी के बेटे की मौत के बाद से इमरोज़ से एक दो बार ही फ़ोन पर बात हो पायी ।
ख़ामोश रहने लगे थे ।
बेटे के जाने का सदमा और बहु बच्चों को सम्हालने की जिम्मेदारी ।
मैं मुम्बई आ चुकी थी । एक दो बार फ़ोन किया तो उन्होंने नहीं उठाया ।
फिर उनके पुराने दोस्त के । के कोहली साहब से पूछा और उनके बारे में पता किया तो उन्होंने बताया कि 'अब उसने किसी से मिलना-जुलना और बातें करना बंद कर दिया है ।
हो सकता है उसे अब अकेले रहना पसंद हो । उसे अकेला ही छोड़ दो । '
कोहली साहब न केवल उनके पुराने दोस्त थे बल्कि हमउम्र भी थे ।
उन्होंने लम्बा समय एक दूसरे के साथ बिताए थे बल्कि बहुत से रोज़ रोज़ के अमृता-इमरोज़ के क़िस्से तो मैंने उन्हीं से सुने थे । बहुत मज़ा आता था मुझे ।
कभी-कभार फ़ोन करके कोहली साहब से ही उनके बारे में ख़बर लेती रहती ।
पंजाब से फिर मुंबई आ गए ।
दिल्ली वाला घर जहां अमृता की न केवल यादें भरी थीं बल्कि उनकी आत्मा रहती थी ।
घर के कोने-कोने में, चप्पे-चप्पे में ।
उसका बिक जाना भी उनके लिए बहुत बड़ा सदमा था । भीतर से दुःखी थे इमरोज़ । उस घर को ऐसे सम्हाल रखा था जैसे अमृता अपने किसी लम्बे दौरे से वापस लौटने वाली हैं ।
एक बार पता चला कि वो मुम्बई आ गए हैं ।
बहु अलका, शिल्पी और अमन के पास ।
बड़ा मन था कि जाकर मिल आऊं ।
लेकिन फिर वही हुआ, एक दो बार उन्हें फ़ोन करने के बाद जब नहीं उठाया तो मैंने कोशिश करनी छोड़ दिया ।
फिर मैंने भी जाने दिया कि उनका मन नहीं किसी से मिलने या बात करने का तो उन्हें परेशान करना सही नहीं होगा ।
मुम्बई की जद्दोजहद और ज़िंदगी की भाग-दौड़ में फिर वो ज़ेहन से ओझल ही होते गए ।
बस जब-जब अमृता का जन्मदिन और पुण्यतिथि आती तो फिर से लोग उन्हें याद करते । रस्म अदायगी के तौर पर ।
अब यह कैसे हो सकता है कि अमृता को याद करें और इमरोज़ को भूल जाएं ।
सो मैंने भी उनसे जुड़ी यादों को कई बार कुछेक पत्र-पत्रिकाओं में लिखा ।
लेकिन यह ख़्याल बार-बार आता रहा कि इमरोज़ ने कहीं भी, कभी भी अपना पक्ष नहीं रखा ।
इतने लोग इतनी बातें लिखते रहे ।
लेकिन इमरोज़ ने न कभी किसी को कोई सफाई दी, न ही खंडन किया ।
जिस इंसान के अंतिम संस्कार में चंद लोग ही जुट पाए फिर उनके जाने पर सोशल मीडिया उनकी प्रेम कहानी से पट गया । हीर रांझा की तरह । सोहनी महिवाल और लैला मजनूं के क़िस्से की तरह ।
दिल्ली में एक शाम मैंने इमरोज़ से कहा था - मैं आपका एक लम्बा साक्षात्कार लूंगी ।
उन्होंने कहा - 'मेरी ज़िन्दगी के हर पन्ने पर अमृता अमृता अमृता ही लिखा मिलेगा । उसके सिवा कुछ भी नहीं है मेरे पास । '
फिर मुझे लगा कि यह शख्स या तो पागल है या जोगी । हर बार उनके जबाब को सुन आश्चर्य होता मुझे ।
मैंने पूछा - ऐसा क्या है जो आप उन्हें इतना प्यार करते हो?
उन्होंने कहा -यह समझने के वास्ते लोगों को अमृता होना पड़ेगा ।
कभी-कभी बोरियत और जलन भी होती कि यह शख्स थकता नहीं है अमृता की तस्बीह जपते-जपते ।
जिस शाम को हम नाटक देखकर एक ही साथ गाड़ी से लौटे तो गाड़ी में एक तरह की गहरी ख़ामोशी थी ।
ऐसा लगा अमृता हमारे बीच बैठी हुई हैं ।
गाड़ी से उतरने लगे तो थोड़ा माहौल को हल्का करने के लिए मैंने शरारत भरे अंदाज़ में हंसते हुए पूछा - अब तो अमृता चलीं गयीं ।
अब मेरा चांस है?
इस पर भी संजीदा हो कर जवाब दिया - इस जन्म में तो क्या, तेरा कभी भी चांस नहीं है क्योंकि यह वादा भी वो आपने साथ ले गई है । 'मैं तैनु फिर मीलांगी ।'
जो कि अमृता की आख़री कविता है ।
आपको पता है आपकी यही बातें हैं जो दुनिया की हर औरत 'इमरोज़' जैसे प्रेमी ढूंढ़ती हैं । मैंने कहा ।
तो वो बोले - 'पहले औरत अमृता बनना तो सीख
जाए । इमरोज़ तो कोई ख़ुद व ख़ुद बन जाएगा । मुझे भी तो उसी ने बनाया । '
अमृता जैसी एक आज़ाद ख़्याल औरत होना तो वाकई मुश्किल है । ख़ास तौर से भारतीय समाज में । लेकिन मुझे लगता है अमृता भी अमृता नहीं हो पातीं अगर उन्हें इमरोज़ नहीं मिलते । उन्हें समझा नहीं होता । उन्हें तवज्जो नहीं दिया होता तो अमृता भी भारतीय समाज की एक आम साधारण औरत ही होतीं ।
दरअसल अमृता इमरोज़ रिश्तों के न नाम के मोहताज थे । न ही दुनिया से रज़ामंदी के ।
उन दोनों की रूह एक थी । मीर और रूमी की रुबाई की तरह ।
अल्लामा इक़बाल का एक शेर है 'हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पर रोती है
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा '
दरअसल वही इमरोज़ थे जिन्होंने नर्गिस रूपी अमृता को पहचान लिया था ।
अमृता -इमरोज़ का रिश्ता आदमी और औरत का रिश्ता नहीं था । कि उम्र का बहाव और शारीरिक आकर्षण था
अमृता प्रीतम ने एक जगह लिखा था - 'आदमी ने औरत के साथ सोकर देखा है । किसी ने जागकर नहीं देखा । '
दरअसल इमरोज़ ने अमृता के साथ जागकर देखा था । जागना जिसे 'अवेकन' कहते हैं । इमरोज़ पूरी तरह 'जाग्रत' प्रेमी थे ।
अभी कभी बहुत याद आती होगी न! एक बार ऐसे ही पूछा था -
'याद जाने वाले की आती है जो दिल बिच रहे रूह में समाकर उसे याद करने की लोड़ (ज़रूरत) ही क्या है । ' दो टुक सा जवाब देकर इमरोज़ मुस्कुरा दिए ।
जीवन में इस इमरोज़ का क्या होगा मेरे ख़ुदा जो अमृता के ख़्याल से कभी जुदा ही नहीं होता ।
मैंने सांस भरते हुए सोचा ।
उसी शाम जब मैं घर लौटी तो पटना से मधु दी का फ़ोन आया । वह भी अमृता की चाहने वालों में से एक थीं । पहली बार अमृता प्रीतम की किताब 'रसीदी टिकट' उन्होंने ही मुझे पढ़ने को दी थी ।
मेरा मन और आवाज़ दोनों भारी थी ।
इसलिए सामने से उन्होंने पूछा - तुम्हारी आवाज़ को क्या हुआ?
मैंने कहा - श्मशान से आ रही हूं इमरोज़ को अलविदा कह कर ।
उन्होंने चौंक कर कहा - श्मशान! क्यों? वो तो मुसलमान
थे । कब्रिस्तान ले गए होंगे!
मैंने कहा - नहीं, वो पंजाबी थे ।
उन्होंने 'ओह' कहकर अफ़सोस किया ।
श्मशान में जब इमरोज़ सोये पड़े थे तो उन्हें छूकर मैंने ख़ुद को यह यक़ीन दिलाया कि हां मैंने इस शख़्स को देखा था ।
विद्युत शवदाह में उनकी चिता को जब सौंपा गया तो तो ज़ोर से रोना तो आया पर तसल्ली हुई कि अब कहानी पूरी हुई । एक दास्तान मुक्कमल हुई क्योंकि वहां अमृता इंतज़ार कर रही होंगी ।
कुछ लोग कहेंगे यह कहानी थी पर मैं कहूंगी यह जन्मों-जन्मों से दो आत्माओं की इस धरती पर आने और मिलने की दास्तान थी ।
कितनी बातें और कितनी दास्तां इमरोज़ अपने साथ ही ख़ामोशी से ले गए । जितना लोग उन दोनों की कहानी के बारे में जानते हैं । जानने का दावा करते हैं उससे कहीं ज़्यादा अनकहा है और अनकहा ही रहेगा अब । अब न दूसरी अमृता होगी न दूसरा इमरोज़....
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इमरोज़ : "एक दुर्लभ लोकगीत"
अमृता प्रीतम जी के निधन पश्चात ही मेरा इमरोज जी से मिलना हुआ । 2008 की बात है, श्रीमती उमा त्रिलोक जी से टेलीफोन पर बातें हुई और हम दोनो दोस्त बन गए । कुछ कारणवश मै दिल्ली में थीं, उन दिनों उमा जी ने मुझे काव्य गोष्ठी में आमंत्रित किया था, वहीं पर इमरोज जी से मेरी पहली मुलाकात हुई ।
उनके घर जाने की इच्छा मन में रखते हुए मैने इमरोज़ जी से पूछा "आपका घर यहां से कितना दूर हैं?"
वे तुरंत बोले " देखो वृषाली, जहां जाना तय हुआ फिर वह जगह दूर नहीं होती । " कितनी सहजता से एक गहरी बात कह गए थे वे और फिर मौका मिलते ही मैं उनके घर जाती रही ।
हर बार मुझे, उनके अंदर का एक सीधासाधा सरल इंसान और उनके अत्यंत निर्मल मन के दर्शन होते रहे ।
अमृता जी का जो कमरा है उसकी दरवाजे पर एक पोस्टर था, जिस पर ये पंक्तियां थीं..
"परछाई यों को पकड़ने वालो, छाती में जलती आग की परछाई नहीं होती । "
शब्द अमृता जी के और सुलेखन इमरोज़ जी का ।
...आज जब वे दोनों ही इस दुनिया को छोड़ चुके हैं, मुझे वह सबकुछ ठीक वैसे ही याद आ रहा है, आंखों के सामने नजर आ रहा हैं ।
सोचती हूं, कैसी होगी वह आग? हम अंदाजा नहीं लगा सकते ।
एक ऐसा रिश्ता, जो अत्यंत उत्कट होकर भी समाज के नियमों का उल्लंघन करनेवाला था । ऐसे रिश्ते के लिए दोनों को जिंदगी भर बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी थीं फिर भी दोनों ने जी भर कर, दिलोजान से वह रिश्ता बखूबी निभाया था, करीबन पचास साल ।
इस रिश्ते ने कभी भी उसकी अहमियत, उसकी ताजगी खोई नहीं । एक पल के लिए भी कभी उन्होंने इस रिश्ते के लिए पछतावा नहीं महसूस किया ।
इमरोज़ जी के लिये ये कैसे मुमकिन हुआ?
उनका नाम ही था इमरोज़ याने " आज "
वे जिंदगी भर आज में ही जिये । ना बीते कल के लिए पछतावा किया, न ही आनेवाले कल के बारे में सोचकर वे भयभीत हुए ।
जो भी करना हैं, वे पूरी शिद्दत के साथ करते गए, दिल लगाकर और पूरी ममता से वे हर बात, हर काम पूरे पचास साल तक करते रहे ।
मै बहुत बार उनके घर जाती रही । उन दिनों उनकी उम्र अस्सी साल से ज्यादा रही होगी लेकिन वे कभी बूढ़े नहीं
हुए । न विचारों से न दिल से । खुद गाड़ी चलाकर उमा जी के घर काव्य संगोष्ठी को आते थे । खाने पीने पर कोई खास पाबंदी नहीं, आईस्क्रिम भी बड़े चाव से खाते थे ।
कहते थे,
"उदासी वाली तबियत ही नहीं हैं मेरी "
एक बार मेरी एक सहेली के घर गए थे हमलोग । उसकी नौकरानी ने बर्तन अच्छी तरीके से नहीं रखे थे और घर ज़रा सा अस्तव्यस्त था । सहेली कहने लगी, कि ये ऐसा ही काम करती हैं, चीजे ख़ूबसूरती से नहीं रखती । तब इमरोज़ जी बोल उठे कि “ वह अपनी जिंदगी से प्यार नहीं करती, शायद उसकी जिंदगी में उसे प्यार ही न मिला हो । "
उनकी यह राय थीं कि जिंदगी में मुहोब्बत और आज़ादी सबसे अहम चीज़ हैं ।
उन्होंने खुद कभी किसी के पास नौकरी नहीं की, क्यों कि वे अपनी मर्जी से पेंटिंग करना चाहते थे । आजादी के साथ वे दूसरे आदमी का आदर करना खूब जानते थे ।
बातो बातों में मैं एक स्त्रीरोग चिकित्सक के नाते अपने अनुभव बता रही थीं । स्त्री के शारीरिक, मानसिक और सामाजिक घुटन की चर्चा कर रहे थे ।
इमरोज़ जी बोले, "हर मर्द औरत के साथ सिर्फ सोना जानता हैं, लेकिन कोई मर्द औरत के साथ जागता नहीं । अगर वह औरत के साथ जागना शुरू करेगा तो जिंदगी को बेहतर समझ लेगा । "
बच्चे पैदा करने की बात के विषय में वे बहुत अलग तरीके से सोचते थे ।
उनका कहना था कि पति पत्नी दोनों को घर को रंगीन, खुशबूदार फूलों से सजाकर, खुद खूबसूरत रंग के कपड़े पहनकर और एकदम बढ़िया मूड में एक दूसरे के पास आना चाहिए । ऐसे खुशनुमा माहौल में पैदा होने वाले बच्चे अच्छे मानव होंगे । लेकिन ऐसा होता तो नहीं । मर्द की वासना ही अहम होती हैं, औरत की मर्जी का खयाल किसे होता हैं? ऐसे में ही अनायास औरत के पेट में बच्चे बढ़ते हैं ।
तो हम नई पीढ़ी से क्या ही उम्मीद करेंगे?"
उनकी एक कविता मुझे याद आती हैं ।
"ये रब का कोई तजरबा हो सकता हैं करामात नहीं कि बच्चा औरत का जिस्म पैदा करे, औरत नहीं ।
करामात तो तब होती जब औरत का, उसकी मर्जी का आदर होता । वो अपनी मर्जी से बच्चे पैदा करती । "
धर्म मानवता संप्रदाय इन चीजों की भी वे बातें करते थे ।
कहते थे, धर्म इंसान का अपना स्वभाव हैं, मज़हब चाहे वो कोई भी पहन लें, जिएगा वो अपना स्वभाव ही । "
इमरोज जी ने महाविद्यालय में जाकर कोई शिक्षा नहीं पाई थीं, आर्ट स्कूल भी दो साल बाद छोड़ दिया था । उन्हों ने लिखा था,
"किताबे पढ़ने से पढ़ना लिखना आ जाता हैं और जिंदगी पढ़ने से जीना । "
अमृता प्रीतम, साहिर लुधियानवी और इमरोज़की की निजी जिंदगी की बातें, अफसाने पढ़ना, चर्चा करना हरेक को पसंद आता हैं क्योंकि ये आसान बात है ।
इमरोज़ बनना आसान नहीं । इमरोज़ एक दुर्लभ और बेनजीर इंसान थे ।
अमृता जी के साथ पचास साल तक वे जिस असामान्य ताकत के साथ रह सके वह कोई आम आदमी का काम नहीं था ।
दुनियादारी के नियम न मानते हुए उन्होंने अपने साफ दिल की बात मानी और अमृताजी से बेपनाह मुहोब्बत की, वो भी बिना किसी शर्त के । खुद के लिए उनकी ज़रूरते ही बहुत कम थीं, इसलिए वे सदा खुश मिजाज़ रह सके ।
सिर्फ वे ही जान सके, सच्चे प्यार की खुशबू ।
संत कबीर कह गए थे,
"प्रेम गली अति सांकरी,
जां में दो न समाही । "
ये जानते थे इमरोज़ इसलिए वे पूरी तरह से अमृतामय हो गए थे । अमृताजी पूरे दिल से, लगातार लिखती रहें, इसका पूरा खयाल इमरोज़ जी रखते थे ।
पचास साल पहले जब अमृता इमरोज़ एक दूसरे के प्यार में डूब गए थे उन दिनों का आकर्षण और वो आत्यंतिक उत्कटता उनके बीच अंतिम समय तक वैसी ही थी ।
उनकी मुहोब्बत ने समय के अनुसार ममता और प्यार के अनेक रंग पहन लिए ।
कभी अमृता इमरोज़ की मां बनती थीं तो कभी इमरोज़ उनकी मां बनकर उन्हे खाना खिलाते थे ।
अमृताजी उनके अंतिम काल में बहुत परेशान व्याकुल रहती थीं । जोड़ों का दर्द असहनीय था, उठना चलना वेदनामय था, तब इमरोज़ निरंतर उनकी सेवा में मग्न रहते थे । कहते थे, मैं तेरा बेटा कभी बेटी कभी मै तेरा दोस्त कभी मैं तेरी मां ।
एक ही जनम में सारे रिश्ते निभा लूं ।
उन्हे ऐसा लगता था कि मै कितना अभागा हूं उसका दर्द मैं बांट नहीं सकता । वे असहाय महसूस करते थे इसीलिए जब अमृता जी ने अंतिम सांस ली तो उसके बाद इमरोज़ जी ने कभी आंसू नहीं बहाए । वे कहते थे कि जो काम मैं ना कर सका वो मौत ने कर दिया, उसको दर्द से मुक्ति दे दी ।
मैं मौत का शुक्रगुजार हूं । उनकी आंखरी सांस तक वे कहते थे "अमृता यहीं हैं मेरे पास । उसने जिस्म छोड़ा हैं साथ नहीं । "
अमृताजी के जाने के बाद इतने साल इमरोज़ उनकी यादों को जीवित रखकर खुश रहे । अमृता जी के बारे में जो भी बात करते थे, उसमें अमृता हैं शब्द का इस्तेमाल करते थे । उन्होंने कभी भी अमृता थीं ऐसा कहां नहीं । अमृता हैं, यहीं मेरे पास वह मेरे बगैर कैसे रहेगी, वो यहीं हैं ऐसा ही कहते रहे ।
उनकी बहू अलका से मेरी बातचीत होती थी । वो इमरोज़ जी को बाबाजी कहती थी ।
एक बार उसने कहां था, "मुझे मंदिर जाने को खास समय नहीं मिलता लेकिन सोचती हूं बाबाजी के लिए जो कुछ करती हूं, पूजा वहीं पर हो जाती है । "
मैं समझ गईं थीं कि इमरोज़ जी के साथ रहकर वह एक सीधी साधी औरत भी इंसानियत को खूब समझने लगी थी ।
मैं जब भी उनके घर जाती, उनका घर मुझे सुकून देता था । इमरोज़ जी के साथ घंटो बैठकर मै जीवन का अर्थ समझ लेती थी । उनकी बाते मुझे मानवता, प्यार समझाती रही और उन्हें देख कर मुझे एक नितांत निर्मल हृदय के दर्शन होते रहे ।
उनके पोते ने उन्हें एक आयपॉड दिया था, जो बड़े नाज़ से उन्होंने मुझे दिखाया था ।
नई तकनीकी चीजे वे उत्साह से सीखते थे, इस्तेमाल करना जानते थे ।
26 जनवरी उनका जनम दिन था । मैं अक्सर याद से उन्हे फ़ोन पर बधाई देती थी और वे हंसते हंसते कहते थे "आज ही क्यो, मुझे हर दिन बधाई दो, प्यार का तो हर रोज जनम दिन होता हैं । "
वे हमेशा खुश रहते दिखाई देते थे । हर एक आदमी की आजादी और सम्मान उन्हे प्रिय था ।
कहते थे " दुनिया का हर देश आजादी का दिन मनाता हैं । झंडे लहराते दिखाई देते हैं, मगर जिंदगी कहीं लहराती दिखाई नहीं देती । जिंदगी लहराती नजर आनी चाहिए । एक आदमी को दूसरे आदमी का सम्मान करना जरूरी है । जिंदगी आदर मांगती हैं और कुछ नहीं । "
रंगों में शब्दों में डूब कर अपनी ही मस्ती में जीने वाले इमरोज़, अपनी एक निजी फिलोसोफी लेकर जीते रहे ।
इमरोज़ बनना हर किसी को मुमकिन ही नहीं हैं । वे एक दुर्लभ व्यक्ति थे । विकारों से पूर्ण मुक्त थे ।
मैंने उन्हें बहुत बार पूछा था, मै आपको क्या नाम दूं?
उन्होंने एक कविता बताकर जवाब दिया था ।
" मैं एक लोकगीत,
बेनाम
हवा में खड़ा, हवा का हिस्सा,
जिसको अच्छा लगे, याद बना ले,
अपना ले
चाहे तो गा लें। "
यह अनन्य असाधारण लोकगीत, सदियों तक सुना जाएगा ।
हिंदू पुराण में सुशील पत्नी के विषय मे एक प्रसिध्द श्लोक हैं ।
"कार्येशु मंत्री । करणेशु दासी । भोजेशु माता । शयनेशु रंभा ।
धर्मा नुकुला । क्षमया धरित्री । भार्याच् षाड्यगुणवती । दुर्लभ:। "
यही बात अगर आज के युग में अपने सहचर के बारे में सोची गईं तो इमरोज़ जी बिलकुल ऐसे ही थे । उन्होंने अमृता जी के लिए हर एक भूमिका निभाई । कभी दोस्त कभी जीवनसाथी कभी मां कभी सहकारी कभी बेटा । सदियोंसे हम देखते आए हैं कि औरतें ऐसी विभिन्न भूमिकाओं में बड़े ही लगन और प्यार से पेश आती हैं लेकिन एक मर्द, ऐसी सभी भूमिकाएं सालोंतक निभाता हैं ऐसा नज़र नही आता । केवल इमरोज़जी ही थे जो अनेक गुणों से भरे और पुरुष के अहंकार से कोसों दूर अपने प्यार में मग्न ।
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डॉ. हरजीत सिंह, फिल्म प्रोड्यूसर और निर्देशक जालंधर, मो. 9876881870
चित्रकार और कवि- इमरोज़
इमरोज़ ने कविता तब लिखनी शुरू की, जब अमृता प्रीतम की कलम खामोश हो गई थी । सारी आयु अपनी पेंटिंग्स, रेखा चित्रों और अपने द्वारा सृजित कलात्मक वस्तुओं की उन्होंने कभी प्रदर्शनी नहीं लगाई । नागमणि के प्रत्येक अंक और प्रत्येक पृष्ठ को ऐसे सुसज्जित किया जैसे कि वे कैनवस हों । कभी कभार जब मन करता वे हमारे पास जालंधर आ जाते थे । हर समय रंगो -रेखाओं की बातें करते जैसे उनकी दुनिया वहीं तक थी । न किसी की निंदा, न चुगली, न किसीसे शिकवा, न किसी बात पर क्षोभ और न कोई लालच ।
एक अद्वितीय व्यक्तित्व ! एक दिन उन्होंने मुझे सुबह-सुबह उठाया और हम सैर के लिए चल पड़े । पार्क की ओर जाते हुए रास्ते में गत्ते, कागज़, डिब्बे तथा बिखरी हुई छोटी छोटी चीजों को उठा कर एक तरफ करते जा रहे थे तो मैंने सहसा कहा, "ऐसे कितनी सफाई कर लेंगे" । इस पर वे एकदम रुके और मेरी ओर देख कर मुस्कराते हुए कहने लगे, " मुझे सफाई पसंद है तो इस बिखरे हुए कबाड़ से मैं अपनी नजर खराब क्यों करूं? जहां तक मेरी नज़र जाती है वहां तक तो मैं जरूर सफाई करूंगा । "उनकी बात सुन मैं आंखें झुकाए प्लास्टिक और बिखरे लिफाफे उठाने लगा ।
एक दिन सुबह की चाय पी रहे थे तो मां और ममता की बातें शुरू हो गईं । मैं तीन वर्ष का था जब मेरी मां मुझे अकेला छोड़ गईं । मेरी पत्नी तेजिंदर अभी चार महीने की थी जब वे मातृविहीन हो गईं और इमरोज़ की मां भी बचपन में ही उनसे अनंत काल के लिए बिछुड़ गई थी । सबके मन में एक सा दर्द टीस रहा था । अपने दर्द बांटते हुए बात मां और ममता से चलती हुई बच्चों तक आ पहुंची । उन दिनों मेरे ऊपर बच्चो के लिए एनिमेशन प्रोजेक्ट बनाने का भूत सवार था । अचानक मैंने कहा, " इमरोज़ जी, आपने कभी बच्चों के लिए चित्रकारी नहीं की है । आप बच्चों के लिए भी चित्र बनाइए । " मेरे मुंह से बात निकलने की देर थी कि वे एकदम बोले, "चलो उठो अभी स्टूडियो में चलें । " घर के साथ ही स्टूडियो है तो वहां आकर कागज़, और कराकर पेन ढूंढने लगे जो वहां मौजूद थे । परंतु उन्हें अपने मन के भाव कृति में उतारने के लिए अपनी मनपसंद का सामान चाहिए था तो कहने लगे, " यह तो मेरे मतलब के नहीं, चलो बाजार चलते हैं " । बाजार चले गए, परंतु उन्हें मनपसंद की कलम न मिली । कहने लगे, "दिल्ली में मेरे पास बहुत पड़े हैं, तुम आज शाम की शताब्दी के लिए मेरी सीट बुक करवा दो, मैं वे लेकर कल शाम तक वापिस आ जाऊंगा । "
ऐसे ही हुआ । अगली शाम वे दिल्ली जाकर अपनी मनपसंद की कलम, स्याही और कागज ले आए और जानवरों के उनकी माताओं के साथ दस बारह सुन्दर चित्र बना डाले । एक दिन हमारे घर के ऊपर वाले कमरे की शीशे वाली खिड़की को अमृता जी की पोर्ट्रेट से श्रृंगार दिया क्योंकि वह तो हर पल उनके साथ ही थीं ।
दिल्ली वाले घर K-25, हौज़ खास के घर की दीवारें, खिड़कियां, दरवाज़े उनके रंगो और ब्रश के स्पर्श से कैनवस की भांति प्रतीत होते थे क्योंकि चित्रकारी और अमृता उनकी दुनियां थी, उनका जुनून थीं । इमरोज़ किसी हाशिए, भूगोल या पैमाने में बांधे नहीं जा सकते । उनकी सोच और उड़ान तक साधारण मानव का पहुंचना नामुमकिन
है ।
वे कहा करते थे, "कला जिंदगी है, प्रदर्शनी नहीं है । " उनकी कला स्वान्तःसुखाये थी, आत्म सन्तोष के लिए थी ।
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श्री संजय मल्होत्रा 'हमनवा', लखनऊ, मो. 9305405684
स्मृति शेष : इमरोज़
रूह छूकर कोई गुजरे तो मोहब्बत कहना,
जिस्म छूकर तो हवाएं भी गुजर जाती हैं ।
कल इस दौर के राँझा इमरोज़ ने नश्वर शरीर त्याग दिया, मूलतः उनकी पहचान अमृता प्रीतम के साथी, चित्रकार और शायर की ही रही है ।
जितना मैं उन्हें जानता और समझ पाया हूँ वो प्यार की पावनता और समर्पण के प्रतीक पुरुष थे ।
अपने कॅरियर को ही नहीं इमरोज़ ने अपने वजूद को ही अमृता प्रीतम में समाहित और विलीन कर दिया था ।
"रूह ने उसकी कहा मरघट से कल
ए दोस्तों, उम्र ही हारी है मेरी जिंदगी हारी नहीं"
मैं और डॉ. श्वेता श्रीवास्तव इमरोज़ पर अपनी प्रकाशनाधीन पुस्तक "मेरा रांझा" को मुंबई जाकर उनके समक्ष रखना चाहते थे परंतु नियति उन्हें वहाँ ले गई जहाँ 2005 से कोई उनकी प्रतीक्षा कर रहा था ।
मेरी उनसे पहली मुलाक़ात अदम गोंडवी जी के माध्यम से उनके निवास पर हुई, उनकी बेहतरीन पेंटिंग्स के साथ-साथ अमृता प्रीतम व उनका अपना कमरा और उनकी ज़ुबानी कहूँ तो उनके प्यार का नायाब घर था ।
इमरोज़ अच्छी तरह जानते थे कि अमृता प्रीतम साहिर से मोहब्बत करती थी पर सच्चा प्यार कहाँ यह सब मानता और समझ पाता है , उनकी स्कूटर के पीछे बैठ कर अमृता अक़्सर साहिर का नाम उन्ही की पीठ पर उकेरा करती थी तब भी इमरोज़ के चेहरे पर शिकन का नामोनिशान तक न होता था ।
सच कहूँ तो इमरोज़ कोई हो नहीं सकता इस लिए नहीं की वो एक महान प्रेमी के रूप में समाज में नज़र आते थे बल्कि इस लिए की वो एक सरल व्यक्तित्व और विशाल ह्रदय के इंसान थे ।
मेरा 25 हौज खास (दिल्ली) जाना दिन पर दिन बढ़ गया था क्योंकि इमरोज़ की निश्छल और उनका सम्मोहक व्यक्तित्व मुझे मुरीद बना चुका था । उनका!! उनकी अमृता से मोहब्बत को समझने के लिए सच्चे प्यार की दृष्टि की आवश्यकता थी, इसके लिए अमृता जी की लंबी बीमारी में जिस भावना से इमरोज़ उनकी सेवा सुश्रसा करते थे वो उनके क़रीबी ही जान सके, 2005 में 'अपूर्वा' सम्मान अमृता प्रीतम को उनके घर पर दिया जाना था मैंने राजधानी के कुछ बड़े साहित्यकारों की नाराज़गी उठाई और सम्मान इमरोज़ के हाथों दिलवा दिया मुझे लगता था कि उनसे बेहतर कोई हो ही नहीं सकता था ।
उस दिन भी बहुत रोया था और आज भी कितना बेचैन उसे लेने को गंगाजल था, जो भी धारा थी उसी के लिए वो बेकल था प्यार उनका भी तो गंगाजल की तरह निर्मल था ।
अलविदा राँझा
टाइटल: इमरोज़ 1977
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इमरोज़ : समर्पण की दैवीय सुगन्ध
इमरोज़ समर्पण जनित प्यार की खुशबू था, जिसकी शख्सियत को शब्दों में नहीं समेटा जा सकता । क्षितिज को दृष्टि में कैसे समेटा जा सकता है ? फूलों की सुगंध को कैसे बांध सकते हैं? रूह के आकार को कैसे वर्णन कर सकते हैं ? सागर की गहराई को कैसे मापा जाए ?
कुछ ऐसे ही थे इमरोज़ ! उन्होंने अपने संबंधों को कैनवस पर चित्रित किया और उसे केवल अमृता को समर्पित किया जिसने उसे देखा और समझा । इमरोज़ के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है उसके जीते जी भी और उसके जाने के बाद भी, परन्तु फिर भी कम लगता है । मैं भी एक संवेदनशील पाठक होने के नाते अपने अनुभव सांझा करना चाहूंगी ।
इमरोज़ से मेरी पहली मुलाकात बाबा दरबारा सिंह कॉलेज टिब्बा में हुई जब उसे निरंजन सिंह नूर अवार्ड से नवाज़ा गया । मैं बतौर प्रिंसिपल, सरकारी नौकरी से सेवामुक्त होने के बाद वहां बतौर निर्देशक कम प्रिंसिपल कार्यरत थी, क्योंकि यह संस्था ग्रामीण क्षेत्र में लड़कियों को उच्च शिक्षा देने के लिए मेरी बचपन की दोस्त डॉ. बलजीत कौर और उसके पति प्रो.चरण सिंह द्वारा शहीद ऊधम सिंह ट्रस्ट के अंतर्गत खोली गई थीं । उन्हें इसके वार्षिकोत्सव पर सम्मानित करना था । वहां उनके द्वारा बनाई कृतियों और लिखी कविताओं की प्रदर्शनी भी लगाई गई थी । मैं भी इमरोज़ से मिली और आशीर्वाद प्राप्त किया ।
वहां की परम्परा के अनुसार नूर जी के भतीजे प्रबंधक कमेटी जिसमे डॉ. हरजीत सिंह, डॉ. तेजिंदर कौर, प्रो. चरण सिंह और डॉ. बलजीत कौर और मेरे द्वारा उन्हें सम्मानित किया गया ।
सारी प्रक्रिया में उनका सहज भाव सचमुच लुभा गया । सादगी, सौम्यता उनका शृँगार थी । कोई उत्सुकता, कोई जल्दबाजी नहीं थी । बस अपने आप में खोए हुए से कुछ सोचते हुए से प्रतीत हो रहे थे क्योंकि वह तो इन सम्मानों से भी ऊपर थे । वह बहुत कम बोलते थे और अपनी मस्ती में रहते ।
वह अपनी कलाकृतियों और कविताओं के विषय में वहां पर बच्चों और अध्यापकों की जिज्ञासा को शांत कर रहे थे जो विशेष बात उनमें थी वह यह कि वह हर बात बहुत कम शब्दों में कह और समझा देते थे । खाना खाने के वक्त भी सारी प्रबंधकीय कमेटी और गण्य मान्य व्यक्ति थे और उनसे बतिया रहे थे परंतु वह ज्यादा सुन रहे थे और बहुत कम बोल रहे थे, जैसे वह किसी और दुनिया में खोए हुए हों, शायद अपनी अमृता के साथ बातें कर रहे हों ।
इस मिलन के दौरान ज्यादा बातचीत नहीं कर पाई और जो मैं जानना चाहती थी नहीं जान पाई क्योंकि एक संस्था का दायित्व और न ही ऐसा वातावरण था कि कोई गंभीर बात हो पाती । परंतु इस मुलाकात ने एक ख्वाहिश पैदा कर दी कि उनसे मिल कर अमृता प्रीतम द्वारा रसीदी टिकट में लिखी कुछ बातों पर चर्चा हो और उनके जाने के बाद वह कैसा महसूस करते हैं । यह उत्सुकता मन में कसमसाती रही ।
संयोगवश शीघ्र ही यह अवसर भी मिल गया । उन दिनों डॉ. हरजीत सिंह इन पर फिल्म का निर्माण कर रहे थे और उनका जालंधर में उनके घर आना जाना लगा रहता था तो सिरजना केंद्र कपूरथला ने उनका रूबरू समागम रखा क्योंकि सबके मन में अमृता के जाने के बाद उनका प्रतिक्रम जानने की उत्सुकता थी ।
पहले प्रश्न पर ही उन्होंने ऐसा जवाब दिया कि सब भावुक हो गए कि प्रेम की ऐसी इन्तहा भी होती है कि जाने के बाद भी प्रियतमा का अस्तित्व महसूस किया जा सके । उनकी हर बात अमृता से शुरू होकर अमृता पर ही खत्म होती । उनकी बातें ऐसी थीं जैसे वह अपने त्याग को त्याग नहीं अमृता की इबादत समझते हों ।
अपनी धुन में वह बातें कर रहे थे और वहां बैठे साहित्यकारों की आंखें नम थीं । मेरे मन में एक कौतूहल था जो मैं पूछना चाहती थी । प्रेम में अपनी अपेक्षाएं त्याग देना, पूर्ण समर्पण कर देना, एकसुरता होना, तारतम्य होना, बेचैनी होना, तड़प होना आम बात है । परन्तु जो प्रेम की प्रचलित कहानियों में देखने में आया है कि यह अक्सर तभी होता है जब दोनों ओर से एक जैसा प्रगाढ़ प्रेम हो और दोनो एक हों कोई दूसरा न हो । परन्तु जहां तक अमृता इमरोज़ का सवाल है इमरोज़ के लिए तो अमृता ही उनकी दुनिया है परन्तु अमृता तो एक ओर प्रीतम के बच्चों की मां है तो दूसरी ओर साहिर की सिगरेट के कश भरती उसके छल्लों में साहिर को तलाशती है और इमरोज़ की कमीज़ पर स्कूटर के पीछे बैठी साहिर साहिर लिखती है । ऐसी स्थिति में कोई कैसे उसके प्रेम पर विश्वास कर सकता है ? कोई भी साधारण पुरुष हो या स्त्री मन में असंतोष और अविश्वास से भर जाता ।
मैंने इमरोज़ से यही प्रश्न पूछा कि उन्हें इस पर कैसा महसूस होता था । अभी मैंने यह प्रश्न पूछा ही था तो एकदम बिना सोचे उत्तर दिया, "अमृता और मैं दो कहां हैं? जो मेरा है वह अमृता का है और जो अमृता का है वह मेरा है । साहिर अगर अमृता का दोस्त है तो मेरा भी दोस्त है । उसे वह प्रेम करती है तो मुझे भी वह प्रिय है । इसमें चुभने वाली कौन सी बात है ?
"वाह री मुहब्बत ! सच में टैगोर ने कहा है, "Love is an endless mystery, for it has nothing to explain it
" इमरोज़ के जाने के बाद मुझे उनके जाने पर शोक प्रकट करने के लिए डॉ. उमा त्रिलोक, डा हरजीत सिंह और डा बलजीत से फोन पर बात हुई । क्योंकि डॉ. उमा त्रिलोक ने उनके बारे में लिखा है और डा हरजीत सिंह ने उन पर फिल्म बनाई है और डॉ. बलजीत को जालंधर में इमरोज़ से मिलने और जानने के काफी अवसर मिले और उनके काव्य संग्रह "राग बैराग "का मुखपृष्ठ भी उन्होंने ही बनाया था । तो उसके विषय में बलजीत कहती कि वह बहुत कम बात करते थे और जालंधर में भी ज्यादा वक्त अपने कमरे में ही चित्र बनाने में लगे रहते । न किसी बात, न शोहरत की चाह, न अवार्ड की भूख और तो और उन्होंने अपनी कृतियों की प्रदर्शनी तक नहीं लगाई । वाह इमरोज़ !
अमृता के लिए घर का हर कोना अपनी पेंटिंग्स से सजा दिया और अपने लिए कुछ भी नहीं ! अमृता के साथ उनके संबंधों की बात करते करते मैंने रूबरू में उनके सुने शब्द सांझा किए तो हम दोनों के मुँह से एक साथ निकला "वह इस दुनिया का था ही नहीं!" सच में वह इस दुनिया का कहाँ था ! वह तो समर्पण की एक दैवीय सुगन्ध थे जो हमेशा सृष्टि में रची बसी रहेगी ।
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डॉ. सुआंशु खुराना, नई दिल्ली, मो. 9717447650
कैसे होता है एक स्त्री का निर्माण?
इमरोज़ ने अपने अथाह प्रेम से कैसे अमृता का, एक स्त्री और एक कवयित्री के रूप में निर्माण किया ?
एक बार एक गुफ़्तगू के दौरान, कवि और फ़िल्म निर्माता गुलज़ार ने, अमृता प्रीतम और उनके साथी इमरोज़ के 45 साल के लंबे रिश्ते के बारे में
बताया । उन्होंने कहा, इमरोज़ हमेशा अमृता को “ मैडम “ कह कर संबोधित करते थे, चाहे वह उनसे या उनके बारे में बात कर रहे हों । मुझे उनका इस तरह से प्रेमिका की ज्येष्ठता को स्वीकार करना बड़ा ही आकर्षित और प्यारा लगा । अमृता, इमरोज़ से ७ साल बड़ी थीं. उनका रिश्ता, आदर, प्रशंसा व निष्ठा पर आधारित था । इमरोज़ अमृता को “ बरकते “ ( स्मृद्धि ) के नाम से भी बुलाते थे । अपने निजी पत्र व्यवहार में वह उन्हें “ माजा “ भी कहा करते थे, जो एक स्पैनिश नावेल की नायिका का नाम था, जिसे उन दोनों ने पढ़ा था । कभी कभी वे उन्हें आशी भी कहते पर मैडम, इमरोज़ का अमृता के लिए पसंदीदा संबोधन रहा, पिछले महीने तक, जब मुंबई में 97 की उम्र में उनका देहांत हो गया ।
हालाँकि 2005 में अमृता की मृत्यु हो गई थी लेकिन वह अपनी प्रभावशाली कृतिओं और इमरोज़ के अथाह प्रेम और चिंतन के कारण हमेशा हमारे साथ रहीं । इमरोज़ का, मृत्यु को प्राप्त होना, एक प्रतिभाशाली कलाकार का खोना तो है ही मगर ऐसा लगता है कि हमने एक बार फिर से अमृता को भी खो दिया है ।
अमृता ने जब लिखना शुरू किया तब ऐसा साहस से परिपूर्ण लेखन, कामुकता पर बेधड़क अभिव्यक्ति और आत्मबोध की तलाश से भरा साहित्य, न देखा, न सुना था । अमृता के साहित्य संसार में स्त्री अपनी निजी इच्छाओं की गरिमा पूर्ण वहन कर सकती थी । इस संसार में उनकी कृतिओं के पात्र ही ऐसे नहीं थे, बल्कि वह स्वयं भी अपनी लिखी हुई कविताओं की पात्र थीं ।
स्वयं एक शादीशुदा स्त्री, एक माँ, लिखती है कि वह किसी अन्य पुरुष, साहिर लुधियानवी से प्यार करती है, उसके आधे जले सिगरेट के टुकड़ों को उठा कर पीती है और अपने पति प्रीतम सिंह के बच्चे को गर्भ में धारण किए हुए यह कामना करती है कि उनके होने वाले बच्चे की सूरत, उनके प्रेमी साहिर से मिलती जुलती हो । उस समय, भारतीय साहित्य में एक स्त्री की ऐसी इच्छा का वर्णन कहीं नहीं मिलता ।
जितना प्यार अमृता साहिर से करती थी उतना ही प्यार इमरोज़ अमृता से करते थे । एक दिन एक किताब के सिलसिले में बात करते हुए । इमरोज़ ने बताया कि उन्होंने “ प्यार “ शब्द का प्रयोग कभी नहीं किया । यह शब्द उन्हें ख़ाली और खोखला लगता था ।
इमरोज़, जिनका असली नाम इंदरजीत सिंह था, लायलपुर
( फ़ैसलाबाद, अभी पाकिस्तान ) में पैदा हुए थे । वह उर्दू के रसाले “ शमा “ में चित्रकार थे ।
अमृता को जब वह उनकी किताबों के कवर बनाने के सिलसिले में मिले तब अमृता शादीशुदा थी और साहिर से मोहब्बत करती थी, फिर भी इन दोनों ने 1950 के दशक में एक साथ रहना शुरू कर दिया । यह दोनों “नागमणी “ नाम की पत्रिका भी निकाला करते थे ।
साहिर की तरफ़ से किसी वायदे के लिए तरसती अमृता को जब साहिर से ( जो बहुत जटिल स्वभाव के थे ) कोई जवाब नहीं मिला तब इमरोज़ से ही उन्हें सांत्वना मिली ।
जब अमृता, इमरोज़ के स्कूटर के पीछे बैठ कर उनकी पीठ पर अपनी उँगली से साहिर का नाम लिखा करती तो इमरोज़ ने उनका त्रिस्कार नहीं किया बल्कि इमरीज़ भी ही थे जो रात को काम करती अमृता की मेज़ पर गर्म चाय का प्याला रख कर चले जाते, बिना कुछ बात किए । जब अमृता को मिलने कोई मेहमान आते तो इमरोज़ उन्हें चाए बिस्किट खिलाते । अन्य पुरुषों की तरह उन्हें यह सब करते हुए कभी अजीब नहीं लगता था ।
इमरोज़ एक चट्टान की तरह अमृता के पीछे खड़े रहे, चाहे अमृता के बच्चों की परवरिश हो या उनके बीमार पति की सेवा ।
आम बात से हट कर, यदि कोई सोचे कि उनके बीच का अंतराल ही उनकी सृजनात्मक कृतियों का कारण था, तो जवाब “ हाँ “ है ।
इमरोज़ की शर्त रहित और बेपनाह मोहब्बत को देखते हुए, अमृता ने उनसे एक बार कहा था,
“ राही, तुम मुझे संध्या के समय क्यों मिले, मिलना ही था तो दोपहर को मिलते, उस दोपहर का सेक तो देख लेते “
ऐसा लगा, जैसे केवल इमरोज़ ही अमृता को इतना प्यार कर सकते थे । उनका आपसी साथ एक नाज़ुक पावन गीत की तरह सार्थक और आध्यात्मिक था ।
इमरोज़ ने एक बार अपने बारे में लिखा था,
“ मैं एक लोक गीत हूँ” जिसे किसी अभिस्वीकृति की ज़रूरत नहीं (उन्होंने कभी अपनी पेटिंग्स पर अपने हस्ताक्षर तक नहीं किए ) जो एक गीत की तरह लहराता है और एक दरिया की तरह बहता है
वह सुदृढ़, सुरक्षित, अमृता के प्यार में डूबा हुआ, पूर्णतः समर्पित इमरोज़ थे जिन्होंने अमृता का निर्माण किया ।
अमृता इमरोज़ के रिश्ते की सराहना करते हुए, गुलज़ार साहिब ने लिखा है,
"तेरी नज़्म से गुज़रते एक ख़तरा रहता है
पाँव रख रहा हूँ जैसे गीले कैनवस पर इमरोज़ के
तेरी नज़्म से इमेज उभरती है
ब्रश से रंग टपकने लगते हैं
वह अपने कोरे कैनवास पर नज़्म लिखता है
तुम अपने काग़ज़ों पर नज़्म पेंट करती हो"
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अक्टूबर 2011 में मुझे ‘अभिनव इमरोज़’ का टाईटल मिल जाने पर मैं इमरोज़ साहब से मिलने के-25 हौज़ खास गया– और RNI का पत्र उन्हें दिखाया । खुश हुए । मैंने कहा- ‘‘मुआफी चाहता हूँ कि आप का नाम इस्तेमाल करने से पहले मैंने आप से रज़ामंदी का मुतालबा नहीं किया’’ उन्होंने कहा ‘‘तो क्या हुआ, मेरे नाम का कॉपीराईट तो है नहीं, वैसे भी मुझे कोई इतराज़ नहीं है ।’’ मैंने अपना बोझ हल्का जरूर कर लिया । इसके बाद लगातार मुलाकातें होती रहीं। अभिनव इमरोज़ मेरे लिए एक सार्थक टाईटल सिद्ध हुआ । अभिनव (नया) इमरोज़ (एक दिन) अभिनव इमरोज़ = नया एक दिन । इमरोज़ फारसी का शब्द होने से पत्रिका को हिन्दी उर्दू का पुल बनाने का मकसद भी पूरा हो गया । अभिनव हिन्दी ओर इमरोज़ फारसी यानी उर्दू के टाईटल ने मेरे मिशन में सामंजस्य की भूमिका निभाई ।
वैसे कई लोग अभिनव-इमरोज़ को मेरे दो बेटे होने की बात सोचते रहे और कई इमरोज़ को मेरे हिस्सेदार समझते रहे । और उनके देहांत होने पर मुझे अफसोस के संदेश भी आए । खैर, इमरोज़ नाम की उपस्थिति से अभिनव इमरोज़ एक स्थापित पत्रिका बन गई...
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साभार: रसीदी टिकट
इमरोज़ : तू जीती हुई हड्डियों का ईसाई है’- अमृता प्रीतम
'उमरा दे इस काग़ज़ उत्ते इश्क़ तेरे अंगूठा लाया, कौन हिसाब चुकाएगा । "1 इस कविता की पृष्ठभूमि यह थी कि एक बार एक उर्दू मुशायरे के मौके पर लोग साहिर से आटोग्राफ़ ले रहे थे । लोग कुछ परे हुए तो मैंने हंसकर अपनी हथेली उसके आगे कर दी और कहा, 'आटोग्राफ़ !' साहिर ने हाथ में लिये हुए क़लम की स्याही अपने अंगूठे पर लगाकर, वह अंगूठा मेरी हथेली पर लगा दिया, मानो मेरी हथेली के कागज़ पर हस्ताक्षर कर दिया हो । मेरे इस काग़ज़ पर क्या लिखा हुआ था जिस पर उसने हस्ताक्षर किया था, यह सब हवाओं के हवाले है । उसे न उसने कभी पढ़ा, न ज़िन्दगी ने, इसीलिए कह सकती हूं-
साहिर एक खयाल था - हवा में चमकता हुआ शायद मेरे अपने ही खयालों का एक जादू, पर इमरोज़ के साथ बिताई हुई ज़िन्दगी शुरू के कुछ बरसों को छोड़- कर, एक बेखुदी के आलम तक पहुंच गयी है । इस आलम को शायद — इस वक़्त याद आयी हुई एक बात से कुछ पकड़ा जा सकता है । एक दिन घर आए हुए एक मेहमान ने मेरा और इमरोज़ का हाथ देखा । मुझसे कहा – 'आपके हाथ में धन की बड़ी गहरी और लम्बी रेखा है, आपको ज़िन्दगी में धन की कमी नहीं हो सकती । ' पर इमरोज़ से उसने कहा- 'आपके पास रुपया कभी नहीं जमा होगा । आपके हाथ की रेखा जगह-जगह से टूटी हुई है । ' इमरोज़ ने अपने हाथ में मेरा हाथ लेकर कहा - 'अच्छा है, फिर हम दोनों एक ही रेखा से गुज़ारा कर लेंगे । '
1964 में जब इमरोज़ ने हौज़ ख़ास में रहने के लिए पटेलनगर का मकान छोड़ा था, तब अपने नौकर की आखिरी तनखाह देकर उसके पास एक सौ और कुछ रुपये बचे थे । पर उन दिनों उसने एक ऐडवर्टाइज़िंग फ़र्म में नौकरी कर ली थी, बारह-तेरह सौ वेतन था, इसलिए उसे कोई चिन्ता नहीं थी । पर एक दिन-दो- तीन महीने बाद उसने लाउड- थिंकिंग के तौर पर मुझसे कहा- 'मेरा जी करता है, मेरे पास दस हज़ार रुपया हो, ताकि जब जी में आए नौकरी छोड़ सकूं और अपने मन का कोई तजुर्बा कर सकूं । ' महंगाई बढ़ रही थी, पर उसकी कही हुई बात, मेरा जी करता था, पूरी हो जाए । जल्दी ही एक साधन भी बन गया- इमरोज़ को वेतन के अतिरिक्त पांच सौ रुपये मासिक का काम अलग मिल गया । सो, खर्च में जितनी कमी कर सकती थी, की, और इमरोज़ के दस हज़ार रुपये जोड़ने की लगन लगा ली ।
लगभग सवा बरस में सचमुच दस हज़ार रुपया इकट्ठा हो गया, और इमरोज़ ने एक दिन अचानक नौकरी छोड़ दी । अलग काम का पांच सौ का अलग आसरा था, वह भी अगले महीने अचानक बन्द हो गया । मुझे तीन महीने के लिए यूरोप जाना था, चली गयी । मेरी अनुपस्थिति में इमरोज़ ने बाटिक का तजुर्बा करना सोच लिया, और उसके लिए अपने भाई को दक्खिन की ओर भेज दिया कि वहां से बाटिक का एक अच्छा कारीगर खोजकर ले आए । -
मैं यूरोप से वापस आयी तो पहले से ही इमरोज़ ने ग्रीन पार्क में तीन सौ रुपये मासिक पर एक मकान किराये पर लिया हुआ था, जिसमें दो कारीगर रहते थे, और कड़ाहों में रंग उबालकर नए खरीदे हुए कपड़ों के थानों पर बाटिक का तजुर्बा कर रहे थे । रंग एकसार नहीं आ रहे थे, और इन धब्बेदार कपड़ों को ढेर के ढेर फेंका जा रहा था ।
उन दिनों इमरोज़ का मिज़ाज दिल्ली के उस मौसम की तरह था, जब दोपहर के समय शरीर लू की तपिश से जलने लगता है, और शाम पड़ते ही ठंड से सिहरने लगता है । कुछ कहना चाहा पर सारे शब्द व्यर्थं थे ।
ढाई सौ रुपये महीने पर एक दर्जी और आ गया, जो अच्छे बने कपड़ों को काट-काटकर क़मीज़ों की शक्ल में सिलता था ।
पर क़मीज़ों की कमर का साइज़ उर्दू शायरी की हसीना की कमर की तरह था...
ऐसी कोई पांच सौ क़मीज़ों का हश्र यह हुआ कि इन्हें बरसों तक संभालकर रखने के लिए एक अलमारी बनवानी पड़ी, और एक बड़ा ट्रंक खरीदना पड़ा । एक दिन की बात याद आ जाती है तो आज भी हंसी छूट पड़ती है । एक दिन एक अमरीकन स्त्री को एक क़मीज़ बहुत पसन्द आयी, वह देख रही थी कि उर्दू शायरी की हसीना की कमर के लिए सिली हुई यह क़मीज़ उसके नहीं आएगी, पर उसने एक पर्दे की ओट में होकर किसी तरह उस क़मीज़ को अपने शरीर पर फंसा लिया । उतारने लगी तो गले से न निकले । हारकर उसने पर्दे के पीछे से आवाज़ दी - 'प्लीज़ गैट मी आउट ऑफ़ दिस शर्ट । '
दस हज़ार बिलकुल ख़त्म हो गए तो इमरोज़ ने अपना इकलौता प्लॉट बेच दिया । साढ़े छह हजार में बिका । एक बरस के इस तजुर्बे में, किताबों के इक्का- दुक्का टाइटल बनाकर उसने जो कमाया था— उसे भी मिलाकर - खर्च का पूरा जोड़ बीस हज़ार हो गया ।
और फिर, बाटिक से उसका जी भर गया । इस तजुर्बे में सिल्क की एक क़मीज़ और सिल्क की एक साड़ी जो इमरोज़ ने अपने हाथों से बनाई थी, मेरे पास है । जब भी यह कमीज़ या साड़ी पहनने लगती हूं, बीस हज़ार का खयाल आ जाता है । और कभी उदास होने लगती हूं तो इमरोज़ हंसकर कहता है- 'इतनी कीमती साड़ी तो किसी मलिका ने भी न पहनी होगी, तुम्हें खुश होना चाहिए कि आज तुमने दस हज़ार की साड़ी पहनी हुई है । ' सो, मेरी यह साड़ी भी दस हज़ार की है, और कमीज़ भी दस हज़ार की...
मैं सचमुच अमीर हूं -यह इमरोज़ के उस हौसले की अमीरी है जो बीस हज़ार रुपये खोकर इस तरह हंस सकता है । और यह बीस हज़ार भी वह, जो उसने न उससे पहले कभी देखे थे, न बाद में...
इमरोज़ को समझना कठिन नहीं । उसमें एक रेखा है जो बराबर चली आ रही है – हथेली पर नहीं, मस्तिष्क के सोचने में । उसके मन में चीज़ों के वे रूप उभरते हैं, जिन्हें कागज़ पर, कपड़े पर, या लकड़ी-लोहे पर उतारना, उसके वश की बात है । केवल बड़े साधन उसके वश के नहीं हैं ।
उसने टैक्स्टाइल के अत्यन्त सुन्दर डिज़ाइन बनाए थे । मैं उन्हें देखती थी तो कहती थी- 'यह अगर सचमुच काग़ज़ों से उतरकर दो-दो गज़ के कपड़ों पर आ जाएँ तो सारे हिन्दुस्तान की लड़कियां परियाँ बन जाएँ...'
यह डिज़ाइन काग़ज़ों पर बनाना उसके बस में था, उसने बना लिये, पर इन्हें कपड़ों पर उतारने के लिए एक मिल की आवश्यकता थी । हमारे मुल्क की ग़रीबी यह नहीं है कि उसके पास मिलें नहीं हैं, ग़रीबी यह है कि मिलवालों के पास दृष्टि नहीं है । ये डिज़ाइन दो बार दो मिल-मालिकों को दिखाए थे, पर अनुभव यह हुआ कि वे लोग, आईन रैंड के उस वाक्य के अनुरूप हैं जो ऐसे लोगों के लिए उसने उनके भाग्य के समान ही लिखा था - पर्फेक्ट ईडियट्स ।
वास्तव में इसी विवशता के कारण इमरोज़ ने बाटिक का माध्यम सोचा था, कि कुछ डिज़ाइन मिलों की मोहताजी से मुक्त होकर कपड़ों का शरीर छू सकें ।
यह और बात है कि यह काम जब तक कारीगरों के हाथ में रहा, वर्णन योग्य नहीं था, पर जब अन्त में इमरोज़ ने उसका सारा अमल अपने हाथ में ले लिया, कुछ चीजें ऐसी तैयार हुईं कि आँख हटाए नहीं हटती थी । पर ऐसी चीज़ों के लिए कुछ जापानियों और अमरीकनों के सिवाय कोई खरीदार नहीं था । और साथ ही यह भी था कि यह हुनर जब इस शिखर पर पहुंचा, तो दो गज़ कपड़ा खरीदने के लिए भी पैसे नहीं रह गए थे ।
यह साधारण-सा माध्यम भी पहुंच के बाहर हो गया, तो इस तजुर्बे का सिलसिला ख़त्म हो गया । फिर धीरे-धीरे वे तजुर्बे अस्तित्व में आए जिनके लिए एक बार में सौ-पचास रुपयों से अधिक की आवश्यकता नहीं होती थी । इमरोज़ ने घड़ियों के डायल डिज़ाइन करने शुरू किए । जब चालीस-पचास रुपये इकट्ठे हो जाते वह एक घड़ी खरीद लाता और उसका डायल डिज़ाइन करता । आज भी हमारी एक अलमारी उन घड़ियों से भरी हुई है जिन्हें रोज़ चाबी देना मुमकिन नहीं है— पर कभी-कभी हम वह अलमारी खोलते हैं तो सारी घड़ियों को चाबी देकर उनकी टिक-टिक बेथोवन की सिम्फनी की तरह सुनते हैं ।
घड़ियों में सदा 'एक समय' होता है, पर इमरोज़ ने 'दो समय' घड़ियों में पकड़ने चाहे । एक तो साधारण समय जो सूइयां बताती हैं, और दूसरा वह जो विश्व के कुछ कवि शब्दों में पकड़ते हैं । इसलिए इमरोज़ ने नम्बर वाले डायल निकालकर घड़ियों में वे डायल डाले जिन पर उसने विश्व के कवियों की वे पंक्तियां लिखी थीं जिनमें अनेक पल-छिन पकड़े हुए थे ।
जो घड़ियां संभालकर रखी हुई हैं उनमें से किसी के डायल पर फ़ैज़ का शेर है, किसी पर क़ासमी का, किसी पर वारिस शाह का, किसी पर शिवकुमार का...
इसी तरह इमरोज़ के कुछ कैलेंडर - डिज़ाइन हैं । किसी की शकल चौकोर मेज़ के समान है जिस पर तारीख और वार शतरंज के मोहरों की तरह बिछे हुए हैं । किसी की शकल एक वृक्ष के समान है जिस पर तारीख और वार के हरे-हरे पत्ते लगे हुए हैं । किसी की शकल एक साज़ के समान है जिसके तार कसने वाली चाबियां बरस के महीने और वार हैं ।
यह सब कुछ अगर अपने देश में और विदेशों में दिखाया जा सकता तो हिन्दुस्तान का नाम अमीर हो सकता था । पर किसी सरकारी मशीनरी को चाबी दे सकना न मेरे बश की बात है, न इमरोज़ के ।
जब कोई किसी का वर्तमान अपनाता है, तो वास्तविक अपनत्व में, उसका और दूसरे का अतीत भी, शामिल हो जाता है— अलग-अलग नहीं रह जाता-- भले ही वह आंखों देखा नहीं होता, फिर भी वह अपने अस्तित्व का हिस्सा बन जाता है-अपने शरीर के किसी पुराने घाव की भांति ।
इमरोज़ जानता हैं, मोहनसिंहजी के प्रति मेरे आदर में मेरी मुहब्बत शामिल नहीं थी । एक बार जब उनकी किताब 'जंदरे' का वह कवर - डिज़ाइन बना रहा था, तो किताब की मुख्य कविता के अनुसार उसे टाइटिल के ऊपर दो ताले बनाने थे — मेरे दो बच्चे जो मोहनसिंह के विचार में दो फूलों के ताले थे- पर उसने टाइटिल पर तीन ताले बनाए । कहने लगा- तीसरा सबसे बड़ा ताला तो खुद बच्चों की मां थी, जो मोहनसिंह को दिखाई नहीं दिया । इसलिए मैंने अधूरी कविता को पूरा करने के लिए दो की जगह तीन ताले बना दिये हैं । '
और इमरोज़ जानता है, मैंने साहिर से मुहब्बत की थी । यह जानकारी अपने आप में बड़ी बात नहीं है, इससे आगे जो सचमुच बड़ा है वह इमरोज़ का मेरी असफलता को अपनी असफलता समझ लेना है ।
इमरोज़ जब साहिर की किताब 'आओ कोई ख़्वाब बुनें' का टाइटिल बना रहा था तो काग़ज़ लिये हुए कमरे के बाहर आ गया । बाहर के कमरे में मैं और देविन्दर बैठे हुए थे । उसने टाइटिल
दिखाया । देविन्दर ही एक दोस्त है जिससे मैं साहिर की बात कर लेती थी, इसलिए देविन्दर ने कुछ अतीत में उतरकर, एक बार टाइटिल की ओर देखा, एक बार मेरी ओर । पर मुझसे, और देविन्दर से भी, कहीं अधिक इमरोज़ ने मेरे अतीत में उतरकर कहा - 'साला ख्वाब बुनने की बात करता है, बनने की नहीं । '
मैं हंस पड़ी - 'साला जुलाहा, सारी उम्र ख्वाब बुनता ही रहा, किसी का ख्वाब न बना । '
मैं, देविन्दर, इमरोज़ कितनी ही देर तक हंसते रहे-उस दर्द के साथ जो ऐसे अवसर पर ऐसी हंसी में शामिल होता है ।
कभी हैरान हो जाती हूं-इमरोज़ ने मुझे कैसा अपनाया है, उस दर्द के समेत जो उसकी अपनी खुशी का मुखालिफ़ है...
एक बार मैंने हंसकर कहा था, 'ईमू ! अगर मुझे साहिर मिल जाता, तो फिर तू न मिलता' - और वह मुझे, मुझसे भी आगे, अपनाकर कहने लगा, 'मैं तो तुझे मिलता ही मिलता भले ही तुझे साहिर के घर नमाज़ पढ़ते हुए ढूंढ लेता ! '
सोचती हूं - क्या कोई ख़ुदा इस जैसे इन्सान से कहीं अलग होता है'
इमरोज़ अगर ऐसा न होता जैसा है तो मैं उसकी ओर देखकर यह शेर कभी न लिख सकती--'बाप वीर दोस्त ते खाविन्द, किसे लफ़्ज़ दा कोई नहीं रिश्ता, उंज जदों मैं तैनूं तक्किया- सारे अक्खर गूढ़े हो गये । 2
इमरोज़ के पास मेरे कई पत्र हैं, पर इनमें से एक मेरे मन का चित्रण करने वाला वह पत्र मिलता है जो मैंने अगस्त 1967 में उसे यूगोस्लाविया से लिखा था-
'ईमवा' : यथार्थ की सीमाबन्दी से घबराकर पायी हुई एक वस्तु होती है- फ़ैन्टेसी ! पर सोचती हूं, जो स्थिरता से प्राप्त किया जाता है वह फ़ैन्टेसी के आगे होता है । इसलिए तेरा जिक्र उससे आगे है — बियान्ड फ़ैन्टेसी !
"हेनरी मिलर के शब्दों में सारे आर्ट एक दिन समाप्त हो जाएंगे, पर आर्टिस्ट अवश्य रहेंगे, और ज़िन्दगी 'एक आर्ट' नहीं होगी, 'आर्ट' होगी । अगर यह मान लिया जाए कि हेनरी मिलर का यह कल्पित समय एक हज़ार वर्ष बाद आ जाएगा तो यह कहूंगी कि समय से एक हज़ार साल पहले पैदा हो जाना तेरा कुसूर है । यह हर उस व्यक्ति का क़सूर है जो सिर से पैर तक जीता है । इस दुनिया में अभी लोग इस तरह के नहीं होते । हर व्यक्ति का आधा कुछ जन्म लेता है, आधा मां की कोख में ही मर जाता है । हर मनुष्य अभी अपना बहुत-सा भाग कोख की क़ब्र में दफ़न करके जन्म लेता है, और उसके लिए किसी पूर्ण मनुष्य को देखने से बढ़कर और कोई दुखदायी बात नहीं होती । सो इस दुनिया की तेरे प्रति उदासीनता स्वाभाविक है-या ऐसे कहूं कि हर वर्तमान की जड़ें केवल अतीत में होती हैं, पर तेरे जैसे उस व्यक्ति का क्या हो जिसके वर्तमान की जड़ें केवल भविष्य में हैं । अगर एक हज़ार साल बाद छपने वाले किसी अखबार की प्रति मैं आज बाज़ार में खरीद सकूं तो मुझे विश्वास है कि मैं उसमें तेरे कमरे में बन्द पड़ी हुई तेरी कलाकृतियों का विवरण पढ़ सकती हूं"
“पर्फेक्शन' जैसा शब्द तेरे साथ नहीं जोड़ूगी । यह एक ठंडी और ठोस-सी वस्तु का आभास देता है, और यह आभास भी कि इसमें से न कुछ घटाया जा सकता है, न बढ़ाया जा सकता है । पर तू एक विकास है, जिससे नित्य कुछ झड़ता है, और जिस पर नित्य कुछ उगता है । पर्फ़ेक्शन शब्द एक गिरजाघर की दीवार पर लगे हुए ईसा के चित्र के समान है— जिसके आगे खड़े होने से बात ठहर जाती है । पर तुझसे बात करने से बात चलती है—एक सहजता के साथ — जैसे एक सांस में से दूसरा सांस निकलता है । तू जीती हुई हडिडयों का ईसा !
'एक पराये देश से तुझे पत्र लिखते हुए याद आया है कि आज पन्द्रह अगस्त है— हमारे देश की स्वतन्त्रता का दिन । अगर कोई इन्सान किसी दिन का चिह्न बन सकता हो तो कहना चाहूंगी कि तू मेरा पन्द्रह अगस्त है, मेरे अस्तित्व की और मेरे मन की अवस्था की स्वतन्त्रता का दिन !
- मेरी उम्र के इस काग़ज़ पर तेरे इश्क़ ने अंगूठा लगाया, इसका हिसाब कौन देगा...
- पिता, भाई, मित्र, और पति - किसी शब्द का कोई रिश्ता नहीं । पर जब तुझे देखा, ये सारे अक्षर गाढ़े हो गए ।
–अमृता, दुब्रोवनिक (यूगोस्लाविया)
प्रस्तुति: देवेन्द्र कुमार बहल, सम्पादक, ‘अभिनव इमरोज़’, ‘साहित्य नंदिनी’, मो. 9910497972
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श्री शैलेन्द्र शैल, द्वारका, नई दिल्ल, मो. 9811078880
चित्रकार और कवि इमरोज़
कुछ दिन पहले चित्रकार और कवि इमरोज़ का मुंबई में 97 वर्ष की आयु में निधन हो गया । उनका असली नाम इन्द्र जीत सिंह था । वे एक प्रसिद्ध चित्रकार थे और उन्होंने सैंकड़ों पुस्तकों के कवर डिज़ाइन किए और शमा और बीसवीं सदी आदि पत्रिकाओं में रेखांकन किए, विशेषकर अमृता प्रीतम द्वारा संपादित नागमणि में । इस पत्रिका पर दोनों के नाम छपते । वे अपने आपको 'कामे' यानी वर्कर लिखते संपादक नहीं । वे अमृता प्रीतम के साथ 40 वर्ष तक रहे, पर दोनों ने इस रिश्ते को कोई नाम नहीं दिया । वास्तव में अमृता जीवन भर साहिर लुधियानवी से प्यार करती रहीं । इमरोज़ के स्कूटर के पीछे बैठे-बैठे वे उसकी पीठ पर उँगलियों से साहिर का नाम लिखती रहतीं । इमरोज़ यह जानते हुए भी ताउम्र अमृता से प्यार करते रहे । दिल्ली के हौज़ खास में अमृता के घर पर अक्सर साहित्यकारों का जमावड़ा लगा रहता था । पाकिस्तान से फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ आए हों या पंजाब से शिवकुमार बटालवी या अन्य साहित्यकार, इमरोज़ उन सबकी मेज़बानी करते । इमरोज़ ने अमृता की बीमारी के दौरान उनकी बहुत सेवा की । सात वर्ष पहले अमृता की स्मृति में आयोजित एक कार्यक्रम में इमरोज़ ने उनके साथ गुज़ारे समय की यादों को साझा किया । उन्होंने अमृता की एक कविता भी सुनाई जिसका हिन्दी अनुवाद कुछ इस तरह से है...
"...मैं तुझे फिर मिलूंगी कहां,
कैसे पता नहीं
शायद तेरी कल्पनाओं की
प्रेरणा बन कर
तेरे कैनवस पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
ख़ामोशी से तुझे देखती रहूंगी
मैं तुझे फिर मिलूंगी..."
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डॉ. अवध बिहारी पाठक, सेंवढ़ा, मो. 9826546605
एक शाश्वत प्यार का जीवन्त पखेरू इमरोज अनन्त में विलीन हो गया । यह दुःखद संदेश डॉ. उमा त्रिलोक ने मुझे फोन पर दिया था । उस क्षण एक सन्नाटा सा कुछ देर मन पर तारी रहा । परंतु तभी एक विचार मन मे जाग पड़ा कि ये समय इमरोज़ की आत्मा को पवित्र श्रद्धांजलि देने का है कि उन्होंने एक सार्थक जीवन जिया । गुमनाम हो कर भी प्रख्यात और प्रख्यात होकर भी गुमनाम, जहाँ इन्सानी सीमाओं के वे तकाज़े जो चाहे धर्म के हों या मर्म के सीमातीत हो जाते है । प्रेम अद्वैत के उस विराट तक पहुंच कर प्रेमी-प्रेमिका इस तरह एकमेव हो जाते है कि परस्पर का आत्म परमात्मा का बना दिखता है । अमृता -इमरोज़ के आत्म ऐसे ही एकमेव थे । सांसारिक संबंधों व्यवहारों, नेक नामियों वदनामियों से बहुत दूर । तभी तो इमरोज ने अमृता के प्रति कहा था-
‘‘तू अक्खर-अक्खर कविता, ते कविता कविता जिंदगी’’ हो मेरे लिए ।
अपनी निजता का इस क़दर दूसरे आत्म मे विलीनीकरण इमरोज़ को उस मानवीय वायवीयता से ऊपर उठ कर उसे एक सार्वकालिक और सार्वदेशीय बना देता है । अमृता को एक दृढ आस्था थी कि वह उनके हर लफ्ज को ख़ुदा का फरमान समझता रहा है । इमरोज़ अमृता की हर गतिविधियों में शामिल रहे । उम्र के आखिरी पड़ाव पर अमृता कहने लगती ‘‘ ईमा ईमा मेरे कोल आके बैठ । मैंनू बौत पीड़ हुन्दी है । ’’ अमृता के लिए इमरोज़ एक निरभ्र आसमान की मानिंद रहे जिन्हें निहार निहार कर जाने क्या क्या स्वर्गिक सुख पाती रही । अमृता की रचनाओं के किरदारों में इमरोज़ के आत्मीय समर्पण की प्रतिध्वनिंयाँ भी सुनी जा सकती हैं । बशर्तें हमारा मन भी उनता ही पवित्र हो ।
अमृता-इमरोज़ की रूह में समाई हुई थी । तभी तो वे कह उठतेे थे- ‘‘ मेरा एक सत्तर दा पाठ बी, ते अरदास बी कि ओह सदा खिदड़ी रहे, महकदी रहे’ अमृता की अन्तिम घड़ियों में भी वे उदास नहीं रहे । क्योंकि वे जानते थे कि इन दो आत्माओं का विलगाव कभी हो ही नहीं सकता ।
आज अमृता के प्रति अटूट प्रेम का प्रेमी उनकी आत्मा के एकात्म होने की खातिर दैहिक रूप से भले ही विलीन हो गया हो परंतु दोनों का प्रेम अमर है और संसार के लिए एक नज़ीर एक आदर्श, प्रेम के इस अमर चित्रकार को मेरी शतशः श्रद्धांजलि कि ‘‘इमरोज़ तूं तो तूं ही था ।
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क्योंकि वो ताजमहल नहीं था... : -डॉ. जेन्नी शबनम
एक बार फिर अमृता, फूट-फूट कर रोई । इमरोज़ के कुर्ते को दोनों हाथों से पकड़ कर झिंझोड़कर पूछा क्यों नहीं बचाया मेरा घर ? क्यों नहीं लड़ सके तुम मेरे लिए ?" बोलो इमा, क्यों नहीं रोका तुमने उन लोगों को, जो मेरी ख्वाहिशों को उजाड़ रहे थे, हमारे प्रेम के महल को ध्वस्त कर रहे थे ? हर एक कोने में मैं जीवित थी तुम्हारे साथ, क्यों छीन लेने दिया मेरा संसार ?"
इमरोज़ निःशब्द ! इमरोज़ बेबस ! खामोशी से अपनी माजा को रोते हुए देखते रहे । आँखें भींग गईं । फिर तड़प कर कहा माजा, मैं क्या करता, मेरा हक तो सिर्फ तुम पर था न, उस घर पर नहीं । मैं कैसे रोकता उन्हें? माजा, मैं घर को बचा नहीं सका, मैं किसके पास जाकर गिड़गिड़ाता? जिन लोगों ने तुमको इतना सम्मान दिया, पुरस्कृत किया, उन लोगों में से कोई भी तुम्हारी धरोहर को बचाने नहीं आया । माजा, उस घर को मैं अपने सीने में समेट लाया हूँ । हमारे घर के ऊपर बने विशाल बहुमंजिली इमारत में वो ईंटें दफ़न हैं, जिन्हें तुमने जोड़ा था और मैंने रंगों से सजाया था। ये देखो माजा, हमारी वो तस्वीर ले आया हूँ, जब पहली बार तुम मेरे लिए रोटी सेंक रही थी, तुम्हें कितना अच्छा लगता था मेरे लिए खाना बनाना । ये देखो वो कप भी मैं ले आया हूँ, जिसमें हर रात मैं तुमको चाय देता हूँ, रात में तुम अब भी लिखते समय चाय पीना चाहती हो न । वो देखो उस तस्वीर में तुम कितनी सुन्दर लग रही हो जब पहली बार हम मिले थे । वो देखो, हमारे घर का नेम-प्लेट ‘अमृता-प्रीतम, के-25’, और वो देखो वो तस्वीर, जिसे बनाने में मुझे 5 साल लगे थे , जिसे तुम्हारे कहने पर मैंने बनाया था ‘वोमेन विद माइंड’। माजा, मैं अपनी तकलीफ किसे दिखाऊँ? मेरी लाचारी तुम समझती हो न! तुम तो चली गईं, मुझे अकेला छोड़ गई । सभी आते हैं और मुझमें तुमको ढूँढते हैं पर मैं तुमको कहाँ ढूँढूँ"? माजा, मेरा मन बस अब तुम्हारा घर है, क्योंकि अब तुम सीधी मेरे पास आती हो, पहले तो तुम जीवन के हर खट्टे-मीठे अनुभव के बाद मुझ तक आई थी । तुम्हारी यादें अब मेरा घर है ।"
किसी जीवित घर का मिटाया जाना विधि का विधान नहीं न नियति का क्रूर मज़ाक है बल्कि मनुष्य के असंवेदनशील होने का प्रमाण है । उस घर का बाशिंदा कितना तड़पा होगा जब उससे वो घर छीन लिया गया होगा जिसमें उसकी प्रियतमा की हर निशानी मौजूद है और यह सब अतीत की कथा नहीं बल्कि उसका वर्तमान जीवन है । कितना रोया होगा वो । कितना पुकारा होगा उसने अपनी प्रियतमा को जिसने अकेला छोड़ दिया यादों के सहारे जीने के लिए, पर उसने सदैव उसे अपने साथ महसूस किया है, उसने सोचा नही बल्कि उसके साथ जी रहा है । कितनी बेबस हुई होगी उस औरत की आत्मा जब उसके सपनों का घर टूट रहा होगा और उसका हमसफर उसकी निशानियों को चुन-चुन कर समेट रहा होगा । तोड़ दिया गया प्रेम का मंदिर । फफक पड़ी होंगी दीवारों की एक-एक ईंट । चूर हो गया किसी औरत की ख्वाहिशों का संसार । कैसे दिल न पिघला होगा उसका जिसने इस पवित्रा घर को नष्ट कर दिया। क्या ज़रा भी नहीं सोचा कि अमृता की आत्मा यहाँ बसती है ? अमृता को उसके ही घर से बेदखल कर दिया गया और उसकी निशानियों को सदा के लिए मिटा दिया गया ।
हौज ख़ास के मकान नंबर के-25 के गेट में घुसते ही सामने खड़ी मारुती कार, जिसे अमृता-इमरोज ने सांझा खरीदा था, अब कभी नहीं दिखेगी । घंटी बजाने पर कुर्ता पायजामा और स्पोर्ट्स शू पहने जीने से उतर कर दरवाजा खोलते हर्षित इमरोज़, जो बहुत खुश होकर पहली मंज़िल पर ले जाते और सामने लगी खाने की मेज़-कुर्सी पर बिठाते हुए कहते हैं "देखो वहाँ अमृता अभी सो रही है", और फिर साथ लगी उस रसोई में खुद चाय बनाते हैं, जिस रसोई में न जाने कितनी बार अमृता ने रोटी पकाई होगी, अब कभी न दिखेगी । रसोई में रखी काँच की छोटी-छोटी शीशियाँ भी उस वक़्त की गवाह हैं, जब अमृता रसोई में अपने हाथों से कुछ पकाती थी और इमरोज उसे निहारते थे। अमृता का वो कमरा जहां अमृता ने कितनी रचनाएँ गढ़ी हैं, और जहां इमरोज की गोद में अंतिम सांस ली है, अब कभी नहीं दिखेगा । कैनवस पर चित्रित अमृता-इमरोज की सांझी जिन्दगी का इन्द्रधनुषी रंग जो उस घर के हर हिस्से में दमकता था, अब कभी नहीं दिखेगा। सफेद फूल, जो अमृता को बहुत पसंद है, इमरोज हर दिन लाकर सामने की मेज़ पर सजा देते थे, अब उस मेज की जगह बदल चुकी है। अमृता की रूह शायद अब भी उस जगह भटक रही होगी, मेज, फूल और फूलदान को तलाश रही होगी । छत के पास अब भी पंछी आते होंगे कि शायद इमरोज़ आ जाएँ और दाना-पानी दे जाएँ, पर अब जब छत ही नहीं रही तो पखेरू दर्द भरे स्वर में पुकार कर लौट जाते होंगे ।
अमृता का जीवन, अमृता का प्रेम, अमृता की रचनाएँ, अमृता के बच्चों की किलकारियाँ, अमृता के हमसफर की ज़ुम्बिश, चाय की प्याली, कैनवस पर इमरोज़ का जीवन- अमृता, रसोईघर में चाय बनाता इमरोज़, रोटी सेंकती अमृता, बच्चों को स्कूटर पर स्कूल छोड़ता इमरोज़, हर शाम पंछियों को दाना पानी देता इमरोज़ । पूरी दुनिया में अपनी रचनाओं के द्वारा सम्मानित अमृता जो अपने बिस्तर पर लाचार पड़ी है, वृद्ध अशक्त अमृता का सहारा बनता इमरोज, हर एक तस्वीर जिसमें अमृता है का विस्तृत विवरण देता इमरोज़, अमृता और अमृता का सांझा-संसार जो उसके मन में सिमट गया, इमरोज जो बिना थके कई बार नीचे दरवाज़ा खोलने तो कभी छत पर पौधें में पानी डालने तो कभी सबसे ऊपर की छत पर पंछियों का कलरव देखने आता जाता रहता है । इमरोज़ के माथे पर न शिकन न शिकायत, बदन में इतनी स्फूर्ति मानो अमृता ने अपनी सारी शक्ति सहेज कर रखी हो और विदा होते वक्त अंतिम आलिंगन में सौंप दिया हो और चुपके से कहा हो "मेरे इमा, मैं इस शरीर को छोड़ कर जा रही हूँ, मैं तुम्हें फिर मिलूंगी, तुम कभी थकना नहीं, मैं तुम्हारे साथ हूँ, पग-पग पर, पल-पल में, वक्त के उस आखिरी छोर तक जब तक तुम इस शरीर में हो, सामने वाले कमरे में बैठी मैं हर रात तुम्हारे लिए गीत रचूंगी और जिसे तुम अपने हाथों से नज़्म का रूप दोगे । मैं, तुम्हारी माजा, तुम्हारे लिए सदैव वर्तमान हूँ, यूँ भी तुम इमरोज़ हो, जिसका अर्थ है- आज, तुम मेरे आज हो, मेरी ख्वाहिशों को तुम पालना, हमारे इस घर में मैं हर जगह मौजूद रहूँगी, तुम जीवन का जश्न जारी रखना, तुम्हारे कैनवस पर और तुम्हारी नज्मों में मैं रहूँगी, मैं तुम्हें फिर मिलूँगी ।"
मुश्किलों से जूझती अमृता का ‘अमृता प्रीतम’ बनना इतना सहज नहीं हुआ होगा । पति से अलग हुई एक आम औरत जिसके दो छोटे बच्चे, सरल नहीं रहा होगा जीवन । टूटी हारी 40 वर्षीय अमृता को इमरोज का साथ और फिर समाज की मान्यताओं और प्रतिमानों से जूझना बेहद कठिन हुआ होगा । रेडियो स्टेशन में काम कर घर चलाती अमृता ने कैसे-कैसे दिन देखे होंगें ये तो बस वो जानती है या इमरोज । अमृता का सम्पूर्ण अस्तित्व जो उस एक घर में बना, पसरा, फिर सिमटा, कितनी क्रूरता से मिटा दिया गया । इमरोज के लिए नहीं तो कम से उस औरत के लिए जिसकी ख्वाहिशें और ज़िन्दगी यहाँ मौजूद थी, कुछ तो रहम किया होता । प्रेम की दुहाई देने वाले और अमृता-इमरोज़ के प्रेम की मिसाल देने वाले कहाँ गए? क्या जीवन के बाद ऐसे ही भुला दिया जाता है, उसकी हस्ती को जिसने समाज को एक नयी सोच और दिशा दी, जिसने स्त्राी होने के अपरोधबोध से ग्रस्त होना नहीं सीखा और स्त्री को गौरव प्रदान किया, पुरुष को सिर्फ एक मर्द नहीं बल्कि एक इंसान और सच्चा साथी के रूप में समझा ।
अब कहाँ ढूँढूँ उस घर को ? प्रेम के उस मंदिर को ? वो घर टूट चुका है और बहुमंजिली इमारत में तब्दील हो चुका है । अमृता बहुत रो रही थी और अपने इमरोज़ को समझा रही थी "वो सिर्फ एक मकान नहीं था इमा, हमारा प्रेम और संसार बसता था वहाँ । मेरे अपनों ने मुझे मेरे ही घर से बेदखल कर दिया । हाँ इमा, जानती हूँ तुम्हारी बेबसी, मेरे घर के कानूनी हकदार तुम नहीं हो न ! दुनिया के रिवाज से तुम मेरे कोई नहीं, ये बस मैं जानती हूँ कि तुम मेरे सब कुछ हो, जानती हूँ, तुम यहाँ मुझे छोड़ कर जाना नहीं, चाहे जो भी हो कानून... उफ्फ"!
इमरोज़ से पूछने पर कि उस घर को क्यों बेच दिया गया, वो कहते हैं "जीवन में ‘क्यों’ कभी नहीं पूछना, हर क्यों का जवाब भी नहीं होता, जो होता है ठीक ही होता है । "अगर अमृता होती तो उनको कैसा लगता" ? पूछने पर बहुत संजीदगी से और मुस्कुराते हुए कहते हैं "अगर अमृता होती तो वो घर बिकता ही नहीं । ये घर भी बहुत बड़ा है, और बच्चों को जो पसंद मुझे भी पसंद, अपने बच्चों के साथ ही मुझे रहना है "।
इमरोज के साथ अमृता अब नए घर में आ चुकी है । अमृता के परिवार के साथ दूसरे मकान में शिफ्ट करते समय इमरोज अमृता की हर निशानी को अपने साथ लाये हैं और पुराने मकान की तरह यहाँ भी सजा दिया है । हर कमरे में अमृता, हर जगह अमृता । चाहे उनके पेंटिंग करने का कमरा हो या उनका शयन-कक्ष, गैलरी, भोजन-कक्ष, या फिर अन्य कमरा । अमृता को देखना या महसूस करना हो तो हमें ‘के-25’ या ‘एन-13’ नहीं बल्कि इमरोज़ से मिलना होगा । इमरोज़ के साथ अमृता हर जगह है चाहे वो जहाँ भी रहें ।
—द्वारा राजेश कुमार श्रीवास्तव, द्वितीय तल 5/7 सर्वप्रिय विहार, नई दिल्ली-110016
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तुम मुक्त हुए
पढ़ा तुम्हारे बारे में....
और खड़ी हो गई मैं निःशब्द,
तुम्हारे सिरहाने ।
बताना क्या है भला,
तुम तो एथेंस के सत्यार्थी रहे
तो तुम्हें ज्ञात था
कि मैं
तुम्हारे कहे और अनकहे के बीच का दर्द
बखूबी समझती रही,
वर्ना अपने, परायों के बीच
तुम मुझे क्यों चुनते ?
- यह कहने को
कि - हौज खास का घर बिक रहा है !
उस दिन मेरी हिचकियां बंध गई थीं,
पर आज तुम्हारे जाने की खबर से
तुमसे जुड़ी मेरी तमाम स्मृतियां
रिवाइंड होकर
वर्तमान में लौटीं
फिर स्वत: मैंने कहा,
आज अपने अकेलेपन से तुम मुक्त हुए !!!
अमृता का इमरोज़ !
जेठ की तपती दुपहरी में
तुमने जब बसंत का गीत सुनाया था
जोरों की हवा चली थी
मेरी खमोशी के सारे सूखे पत्ते
देखते ही देखते झर गए थे
हरसिंगार की भीनी भीनी खुशबू सी
मेरी खिलखिलाती हँसी को छूकर
मेरे साथ चलते अनाम ने कहा था
यही प्यार है !
प्यार ?
क्या वही प्यार
जिसके लिए काव्य-महाकाव्य रचे गए
जिसे बिना किसी आकृति के
बस 'प्रेम' कहकर
मैंने पूजा के सिंहासन पर स्थापित किया ?
यही है वह जादू
जिसमें सारी ऋतुएँ होती हैं
होती है वह आत्मा
जिसे कृष्ण ने अपनी बाँसुरी में बसाया था
हर प्रेम करनेवालों के लिए ?
यही है वह प्यार
जिसके लिए मीरा दीवानी कहलाई
राधा कृष्ण से पहले आई ?
रसखान ने अपने अगले जन्म की चाह लिख डाली
सूरदास ने मन की आँखों से बाल लीला लिख दी ?
यही है वह प्यार
जिसके लिए एडवर्ड ने राज्य त्याग दिया
अनारकली दीवारों में चुन दी गई ?
जेठ की तपती दुपहरी में यह बसंत राग
अमृता का इमरोज़ है न ?
इमरोज़
सपना से हकीकत बनकर
समय ने जब तुमसे मिलाया
सबसे पहला ख्याल जो आया
वह था - कोई फ़रिश्ता ज़मीं पे उतर आया है !
तुम - अमृता की कलम से उतरी
किसी ख़ास नज़्म की तरह
घर के पन्नों पर तैर रहे थे
नज़्म -
जिसने प्यार के पन्नों को तारीख़ बना डाला !
कमरे तस्वीरों से भरे थे
पर मुझे हर शय में ख़ुदा नज़र आया !
एक तराशी प्रतिमा
जिसे प्रेम के कुम्हार ने जतन से गढ़ा
प्रेम के फ्रेम में डाला
और उसके बाद के सारे रास्ते बंद कर दिए !
पर निराशा से परे तुम -
एक लम्हा बन
खोलते हो मन के दरवाज़े
किसी महाग्रंथ की तरह अमृता का पाठ करते हो
बिना किसी रुद्राक्ष के मनकों के
प्रेम अग्नि में प्रेम का घृत डालते हो
आवाहनम भी अमृता
स्वाहा भी अमृता
.... तुम कौन हो इमरोज़ ?
गुरबानी,अजान,मंदिर की घंटियाँ
या अकम्पित लौ ?
प्राप्य,अप्राप्य से परे
मेरी निगाह में तुम एक जिद हो मासूम बच्चे की
जो वही खिलौना चाहता है
जो उसे सबसे प्रिय हो ...
अमृता तुम्हारा ख्वाब
अमृता तुम्हारा सच
तुमने गौर किया या नहीं
मैंने किया -
तुम्हारी पुतलियाँ अमृता हो गई हैं
तभी तो -
तुमने कहा था मुझसे चलते चलते
'तुम अमृता हो'
मैं रोमांचित हो मुस्कुराने लगी थी
इसलिए नहीं कि मैं अमृता हो गई थी
बल्कि इसलिए कि उस एक पल को
इमरोज़ उस बच्ची का हो गया था
जिसने इमरोज़ अमृता के मिलने के बाद जन्म लिया था
जो सोचती थी - ये इमरोज़ है कौन
और 31 जनवरी 2010 को हौज़ ख़ास के यादगार घर में
उस लड़की के प्रश्नों के जवाब में
इमरोज़ कह रहा था -
'प्यार में देना ही पाना है'
और वह लड़की यानि मैं
अपनी जिद में विरोध कर रही थी -
'नहीं .... '
पर क्या प्यार में 'नहीं' की कोई उम्र है
या कोई जगह !
मैं जानती थी सच
पर उस वक़्त मैं ईश्वर की प्रतिनिधि थी
अन्यथा इमरोज़ से प्रश्न
इमरोज़ के पूरे उम्र की
त्याग की
तौहीन है !!!
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इमरोज़
मैं कोई स्थापित नाम नहीं थी, पर इश्क़ का एक अद्भुत दरिया मेरे अन्दर बहता रहा... उसी दरिया में तिनके की तरह बहते हुए मैं इमरोज़ से मिली थी ।
यूं तो इमरोज़ ने हर चाहनेवालों को एक विशेष दर्जा दिया । बहुत सहज, स्वाभाविक व्यक्तित्व जो था । पर मेरे साथ कुछ तो था, जो सबसे अलग हटकर था - !
मैं जब पहली बार हौज खास पहुंची, तब घंटी बजाने से पहले हाथ थरथराए थे, धड़कनें तेज हुई थीं, पता नहीं कैसे मिलेंगे! लेकिन दरवाजा खोलकर जो शख्स मेरे आगे खड़ा था, वह एक सूफ़ी गीत लगा, जिसे देख आंखें गुनगुनाने लगीं । उसने कहा, आओ रश्मि, आ जाओ... मैं सम्मोहन का धागा थामे बढ़ती गई ।
घर तो वह था ही नहीं, वहां प्रेम मंदिर था, प्रेम की समाधि थी, ... छोटी छोटी घंटियों के गुच्छे की तरह अमृता की कविताएं थीं, अमृता की पूरी धरती, पूरा आकाश था । इमरोज़ की बातचीत में सिर्फ अमृता की रुह थी, जिसकी प्राण-प्रतिष्ठा में इमरोज़ ने खुद को भुला दिया था । मैं सुनती रही, देखती रही... फिर मैंने धीरे से मंदिर के रिक्त कोने में इमरोज़ का वजूद रख दिया । मुस्कुराए थे वह और बरसों से अपने तपते मन पर मेरी बातों की बारिश में वे भीगते गए । सबको जरुरत होती है, उन्हें भी थी - कहते हैं न कि जग से चाहे भाग ले कोई, मन से भाग न पाए और मैंने उस मन को झकझोरा ।
प्रगति मैदान में चलते हुए अचानक मुड़कर इमरोज़ ने कहा था - "तुम तो बिल्कुल अमृता हो", मैं मन ही मन मुसकाई - ना, मैं अमृता हो ही नहीं सकती, होना भी नहीं चाहती, मैं बस इमरोज़ हूँ, बस इमरोज़ ।
दिल्ली में मेरी पहली किताब 'शब्दों का रिश्ता' के लोकार्पण में इमरोज़ ने अपना सारा समय मेरे नाम कर दिया था । मेरे लौटने से पहले उन्होंने मुझे घर के हर कमरे से मिलवाया, मुंडेर पर कबूतरों से, उनके दानों से, फूलों से... मिलवाया । पास ही किताबों की एक छोटी सी दुकान थी, वहां से कुछ किताबें लेकर मुझे दीं, अपने बनाए रेखाचित्रों का कैलेंडर दिया, फिर पूछा - और कुछ चाहिए ? मैं अवाक बस उनको महसूस कर रही थी ...
जब चलने लगी तो गाड़ी के दरवाजे पर उन्होंने कहा, थोड़ा आगे बढ़ना, मेरी समझ में नहीं आया कि बात क्या है, पर मैं खिसक गई तो वो बैठ गए । अब यह हमारे लिए आश्चर्य की बात थी । हमें लगा, कहीं उतरना होगा । पूछा, जी कहां चलें, बड़ी सरलता से बोले, जहां तुम ले चलो । मैं अपनी दीदी से मिलने जा रही थी, झट से उनलोगों को मैसेज किया और इमरोज़ हमारे साथ वहां गए । फिर हमें एयरपोर्ट जाना था तो उनको हौज खास छोड़ने गई, अपने अकेलेपन को भरते हुए इमरोज़ मेले में खो गए बच्चे की तरह लग रहे थे ! सच भी था यह, पर प्यार अपनी ज़िद में सबकुछ स्वीकार कर लेता है ।
मैंने उनसे जो जो कहा, उन्होंने हमेशा कहा "ठीक है" ।
मोबाइल पर हर सुबह बात होती थी, एक दिन मैंने मैसेज किया तो उनका फोन आया, यह तो मुझे आता नहीं है, लेकिन मैं सीख लूंगा और उन्होंने सीख लिया । उनकी चिट्ठियां आतीं, मैंने लिखा – कभी इन चिट्ठियों के बदले आप आ जाते तो ... और वे आ गए, तब मैं पुणे में थी। दो दिन वे रहे, मेरे हाथ का खाना खाकर वे बहुत खुश थे ।
अभिनव इमरोज़ पत्रिका के बारे में पूछा तो उन्होंने मेरे लिए सब्सक्राइब कर दिया, हर महीने वह पत्रिका मुझे मिलती रही ।
कोरोना के वक्त से सिलसिला रुकने लगा, आखिरी बातचीत 2021 में संभवतः हुई । लेकिन इससे अलग यह सच था कि बचपन से मैंने प्यार को पूजा माना और इमरोज़ का नाम अगर की खुशबू की तरह मैंने बचपन से सुना । इमरोज़ का मेरे घर आना कोई इत्तेफाक नहीं था, बल्कि प्यार का वरदान था । इस रिश्ते में थी हौज खास K25 की छत पर जाती सीढियां, साथ चाय पीने का सुकून, घर के हर सदस्य के लिए की गई बातचीत - जो मेरे रहने तक मेरे साथ रहेंगी ।
है ना इमरोज़ ?
— सुश्री रश्मि प्रभा, ठाणे, मुम्बई, मो. 7899801358