भास्कर ओपिनियन
हिंदी दिवस:हिंदी की बिन्दी मत पोंछिए, किसी भी भाषा का सम्मान उसके सही उपयोग में निहित है

2 वर्ष पहले
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देश में हिंदी बोलने, लिखने वाले सर्वाधिक हैं परंतु उन्होंने हिंदी की बिन्दी को पोंछ दिया है। पहले आधे म के लिए अलग ‘गोल’ और आधे न के लिए अलग ‘चौकोर’ बिन्दी हुआ करती थी। एक चंद्र बिन्दु भी होता था। अब लिखने वालों ने सारी बिन्दियाँ एक कर दी हैं। इस कारण जो अर्थ का अनर्थ होता है, पूछिए मत। संन्यास को तो संयास लिखकर इस तरह बिगाड़ा है कि वो स नाश यानी सत्यानाश जैसा लगता है।

चंद्र बिन्दु की जगह लगाया जा रहा बिन्दु तो उच्चारण को भी भ्रष्ट करने पर तुला हुआ है। किसी को कोई हर्ज नहीं। अंग्रेजी में स्पेलिंग गलत हो जाए तो व्यक्ति को गंवार कहने से नहीं चूकने वाले लोग ही हिंदी की गलती पर जरा भी अफसोस नहीं करते। ऊपर से कहते हैं, कोई बात नहीं, समझ में आना चाहिए, बस। चलता है। जैसे गुजराती में कहते हैं- चाले छे! केम चाले छे भाई? हिंदी की गलती चलती है, वाली परिपाटी बंद होनी चाहिए।

कहाँ हमारे मनीषियों ने हिंदी में बड़ी-बड़ी खोज की और कहाँ हम बिन्दियों को भी संभाल नहीं पा रहे हैं। मनीषियों की खोज से कई ऐसे शब्द सामने आए जो संस्कृत के थे और कोट-टाई पहनकर घूमते-घामते अंग्रेजी बनकर हमारे पास वापस आ गए। जैसे- मातृ। दिल्ली से चला। पंजाब गया तो मात्तर हो गया। अरब पहुँच कर मादर हो गया। मादरे वतन। लंदन गया, मदर हो गया और अंग्रेजी बनकर हमारे पास आ गया।

इसी तरह भ्रातृ। दिल्ली से चला। पंजाब पहुँचकर भिरात्तर हुआ। अरब पहुँचा बिरादर हो गया। जिससे बिरादरी बनी। लंदन गया ब्रदर बना और वापस अंग्रेजी रंग- रूप में हमारे पास आ गया।

विद्वानों ने ऐसे सैकड़ों शब्द खोजे हैं जो संस्कृत के थे और अंग्रेजी बनकर वापस आ गए। हम कुछ नया तो खोज नहीं पा रहे, उल्टे जो हमारे पास हैं, उन्हें भी या तो खोते जा रहे हैं या जानबूझ कर उन्हें बिगाड़ते जा रहे हैं। कहते हैं- चलता है। चूँकि हमने ही अपनी भाषा को महत्व नहीं दिया, इसलिए दूसरे भी हिंदी और हिंदी बोलने वालों को दोयम दर्जे का समझने लगे। वर्ना किसी की क्या मजाल कि हमें कमतर समझने की भूल करे।

हिंदी जितनी समृद्ध तो कोई भाषा है ही नहीं। इसकी समृद्धि देखिए- जल और उसके पर्यायों के पीछे अज लगा दो तो कमल खिल जाता है। यानी अर्थ हो जाता है कमल। जैसे जलज, नीरज आदि…। इसी तरह इसी जल या इसके पर्यायों के पीछे धि लगा दो तो सारे समुद्र हो जाते हैं। जैसे जलधि, नीरधि आदि…!

मात्राओं के नियम तो ऐसे हैं कि एक बार याद कर लो तो कभी भूलो ही नहीं। जैसे अंजली जितने भी प्रकार की होती हैं, इन सब की मात्राओं में आए दिन कोई न कोई गलती होती है। इसका नियम यह है कि जिसमें हाथ जोड़ने की जरूरत पड़े उसमें बड़ी ई की मात्रा। जो अंजलि हाथ जोड़े बिना दी जा सके, उसमें छोटी इ की मात्रा। जैसे- अंजली में दोनों हाथ जोड़कर ही पानी लिया जाएगा इसलिए बड़ी यानी अंजली। श्रद्धांजलि, गीतांजलि आदि में हाथ न जोड़ो तब भी चलेगा, इसलिए छोटी। पुष्पांजली में हाथ जोड़कर ही हाथ में पुष्प लेना पड़ेगा इसलिए बड़ी मात्रा। यानी पुष्पांजली।

अब इतनी समृद्ध भाषा छोड़ी तो नहीं जा सकती। उसका सम्मान ही किया जा सकता है। … और किसी भी भाषा का सम्मान उसके सही उपयोग में निहित होता है। … तो करते रहिए हिंदी का सही उपयोग।

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