संतुष्टि: समग्रता में ही संतुष्टि है और संतुष्टि में ही सुख है
एक श्रेष्ठ मनुष्य वही है जिसमें हर जीव के प्रति करुणा हो और स्वार्थ के स्थान पर समग्र रूप से परोपकार की भावना मन के भीतर निहित हो। समग्रता में ही संतुष्टि है और संतुष्टि में ही सुख है।
जीवन सर्वभूत है। अर्थात् जीव-जंतु, पेड़-पौधे और आकाश-धरती सभी में सांस है, चेतना है। सभी में एक प्रकार की गति है, जिसकी वजह से प्रमाणित होता है कि सभी में जीवन है। हम जीवन को बांटकर नहीं देख सकते। अपनी विविधता में भी सभी तत्वों में एक ही चैतन्य ऊर्जा रही है। एक ही प्राण अलग-अलग वस्तुओं में पृथक-पृथक कार्य कर रहा है। यही एक प्रकार की समग्रता है। समग्रता के भाव से ही श्रेष्ठता को प्राप्त किया जा सकता है। प्रकृति हमें सदैव ही समग्रता का पाठ पढ़ाती आई है।
प्रकृति सारे संसार को न सिर्फ प्रेम लुटाती है, बल्कि जीवन की सभी मूलभूत सुविधाएं भी प्रदान करती है। यह सामान्यत: मनुष्य से कभी शिकायत नहीं करती। यदि आप एक बीज भी कहीं उगाते हैं तो उसके बदले में सैकड़ों फल प्राप्त करते हैं। एक पुष्प कई लोगों के मन को हर्षित कर देता है और वातावरण को सुगंधित कर देता है।
वहीं मनुष्यों ने देने के बजाय लेने की प्रवृत्ति पर अधिक बल दिया है। विध्वंस के प्रति मानव की स्वाभाविक प्रवृत्ति रही है, जो कि जीवन के लिए अंतत: हानिकारक ही सिद्ध हुई है। हम मनुष्य प्रकृति जैसे महान गुरु के सान्निध्य में रहकर भी परोपकार की भावना से वंचित हैं इसीलिए हमारे अंदर समग्रता और संतुष्टि के भाव का नितांत अभाव है।
अत: एक हाथ से यदि आप कुछ प्राप्त करते हैं तो दूसरे हाथ से देना भी सीखिए। यही श्रेष्ठता का भाव है। हम अपने हित साधते हुए भी दूसरों के हितों का भी ध्यान रखें। यही मानवता का मूल पाठ है। इसी बात की शिक्षा हर धर्म ने मनुष्यों को समय-समय पर दी है।
एक श्रेष्ठ मनुष्य वही है जिसमें हर जीव के प्रति करुणा हो और स्वार्थ के स्थान पर समग्र रूप से परोपकार की भावना मन के भीतर निहित हो। समग्रता में ही संतुष्टि है और संतुष्टि में ही सुख है। सुख प्राप्त करना ही मानव जीवन का परम ध्येय है। इसे वृहद दृष्टिकोण अपनाकर ही प्राप्त किया जा सकता है।
अंशु प्रधान