Professional Documents
Culture Documents
व्रण की निरूक्ति :-
(1) व्रण गात्रविचूर्णने, व्रणयतीति व्रण: ।
(सु.चि.1/6)
व्रण शब्द गात्र विचूणार्थक व्रण धातु से बना है ।
(2) व्रणगात्र वैवर्ण्य करोतित्यर्थ ।
(डल्हण)
व्रणस्थान का वर्ण उसकी नज़दीकी त्वचा के वर्ण की अपेक्षा विवर्ण (भिन्न) होता है ।
परिभाषा :-
(1) वृणोति यस्माद् रूढे ऽपि व्रणवस्तु न नश्यति ।
आदे ह धारणात्तस्माद व्रण इत्युच्यते बुधै : ।।
(सु.सू.21/40)
जिस स्थान पर घाव हुआ हो वहाँ आच्छादन करने को व्रण कहते है । घाव के भर जाने पर भी दे ह
धारण (जन्म) पर्यन्त जो वहाँ पर व्रणवस्तु (चिन्ह) बन जाता है, वह नष्ट नही होता है, अत एव उसे
भी व्रण कहते है ।
(2) Pathological definition of vrana:-
अत ऊर्ध्वमेतेषावदीर्णानां व्रणभावमापन्नानां षष्ठ: क्रियाकाल: ।
(सु.सू.21/35)
व्रण के हेतु :-
(1) शारीरिक व्रण – वात, पित्त, कफ, रक्त एवं सन्निपातज के कारण उत्पन्न होता है ।
(2) आगन्तुक व्रण – पुरूष, पशु, पक्षी, हिंसक जीव तथा सर्प आदि से, गिरने ,दबने, चोट लगने
और अग्नि से, क्षार, विष एवं तीक्ष्ण औषधियों के प्रयोग से, लकड़ी-पत्थर के टु कड़ों से, घड़े
के खप्पर से, सींग से, चक्र, बाण, फरसा, शक्ति, भाला आदि शस्त्रों के अभिघात से उत्पन्न
होता है ।
व्रण के प्रकार :-
(1) शारीरिक / निज व्रण :-
दोष दूषित व्रण संक्षप े त: मुख्य १५ प्रकार के है एवं कुछ आचार्य शुद्ध व्रण का समावेश कर
व्रण के १६ प्रकार बताते हैं ।
१.वातज व्रण
२.पित्तज व्रण
३.कफज व्रण
४.रक्तज व्रण
५.वातपित्तज व्रण
६.वातश्ल़ेष्मज व्रण
७.पित्तश्ल़ेष्मज व्रण
८.वातरक्तज व्रण
९.पित्तरक्तज व्रण
१०.श्ल़ेष्मरक्तज व्रण
११.वातपित्तरक्तज व्रण
१२.वातश्ल़ेष्मरक्तज व्रण
१३.पित्तश्ल़ेष्मरक्तज व्रण
१४.वातपित्तकफज व्रण
१५.वातपित्तरक्तज व्रण
१६.शुद्ध व्रण
वातज व्रण में श्याव अरूण वर्ण, तनु, शीत स्पर्श,पिच्छिल, अल्पस्त्रावी,
रूक्ष, चटचटायनवत् वेदना, स्फुरण, आयाम, तोद, भेद, अबहुल,
अल्पमांसयुक्त लक्षण होते है ।
पित्तज व्रण क्षिप्र, पीत एवं नील वर्ण, पलाशपुष्प को धोने पर निकलने
वाले जल के समान, उष्णस्त्रावी, दाह, पाक, रागयुक्त होकर पीत
पिड़िका युक्त लक्षण होते हैं ।
कफज व्रण :-
कफज व्रण में नित्य कण्डू , स्थूल औष्ठ, कठिन सिरास्नायूओं के जाल से
बंधा हुआ, पाण्डु वर्ण, मन्द वेदना, शीत, गाढे ़ तथा पिचछिल स्त्राव से
युक्त एवं गुरू लक्षण होते हैं ।
रक्तज व्रण :-
प्रवालदलनिचय प्रकाश:
कृष्णस्फोटपिडकाजालोपचितस्तुरड् ग़स्थानगन्धि: सवेदनो
धूमायनशीलो रक्तस्त्रावीपित्तलिंगश्चेतिरक्तात् ।
रक्तज व्रण में मूंगा के एकत्रित टु कडों के तुल्य वर्ण वाला, काले छाले एवं
फुन्सियों के जाल से भरा हुआ,तीक्ष्ण क्षारगन्धि, वेदनायुक्त,
धूमायनशील, रक्तस्त्राव एवं पित्त के लक्षणों से युक्त होता है ।
वातपित्तज व्रण :-
वातकफज व्रण में कण्डू , तोद, रूक्ष, गुरू, कठिन एवं पुन:पुन:
अल्पस्त्राव ये लक्षण दिखाई दे ते हैं ।
पित्तश्ल़ेष्मज व्रण :-
पित्तकफज व्रण में गुरू, दाहयुक्त, उष्ण, पीत, पाण्डु वर्ण का स्त्राव होता
है ।
वातरक्तज व्रण :-
पित्तरक्तज व्रण :-
वातपित्तरक्तज व्रण :-
वातश्ल़ेष्मरक्तज व्रण :-
पित्तश्ल़ेष्मरक्तज व्रण :-
इस व्रण में प्राय: दाह, पाक, राग एवं कण्डू युक्त, पाण्डु वर्ण घन स्त्राव
होता है ।
वातपित्तकफज व्रण :-
शुद्ध व्रण :-
(सु.सू.23/18)
जो व्रण वात, पित्त और कफ इन दोषों से आक्रान्त न हो, जिसके औष्ठ श्याव रंग के हों,
जिसमे छोटी-छोटी पिड़कांए दिखाई दे ते हों तथा जिसके सब भाग समान हों एवं वेदना तथा स्त्राव
से रहित हो उसे शुद्ध व्रण कहते हैं ।
आचार्य चरक के अनुसार :-
(च.चि.25/86)
न अधिक लालवर्ण, न अधिक श्वेतवर्ण, न अधिक श्याव वर्ण, न अधिक पीड़ा, न अधिक उभार तथा
न अधिक उत्संगी ऐसे लक्षणों से युक्त व्रण को चरक ने रोपित व्रण / शुद्ध व्रण कहा है ।
1.दर्शन – रूग्ण की आयु, शरीर वर्ण, व्रण वर्ण, शरीर एवं इंद्रिय परीक्षण, कृशता, स्थूलता,
अधिष्ठान एवं अन्य विकृति आदि का परीक्षण करें ।
2.प्रश्न – व्रण का कारण, व्रणवेदना स्वरूप, सात्मय, असात्मय, जठराग्नि बल आदि का परीक्षण
करें ।
सुश्रुत ने रोग का संपूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के लिए ६ उपाय बताए हैं :-
1.श्रवणेन्द्रिय – धमनीस्थित शल्य लक्षण में वायु फेनयुक्त रूधिर के साथ आवाज़ करते हुए बाहर
निकलता है ।
2.स्पर्शनेन्द्रिय – ज्वर, शोफ, शीत, उष्णता, स्निग्धता, कर्क शता, मृदु कठिन आदि अवस्थाओं का
ज्ञान होता है
3.चक्षुरेन्द्रिय – शरीर उपचय, अपचय, आयुलक्षण, बल, वर्ण, विकार, पाण्डु , कामला आदि
अवस्थाओं का ज्ञान होता है ।
6.प्रश्न – दे श, काल, जाति, सात्मय, आतंक समुत्पत्ति, वेदनास्वरूप, बल, व्याधिकाल प्रकर्ष आदि
का ज्ञान होता है ।
2.चतुरस्त्र (चोकौन)
3.वृत्त (गोल)
4.त्रिपुटक (त्रिकोण)
उपरोक्त ५ आकृतियों के अलावा सभी व्रण आकृति विकृत हैं तथा कृच्छ्रसाध्य है, जैसे – अर्धचन्द्र
एवं स्वस्तिक ।
१.वातज स्त्राव – परूष, श्याव, अवश्याय, दधि, मस्तु, क्षारोदक, मांसधावन, पुलाकदोक के समान
होता है ।
२.पित्तज स्त्राव – गोमेद, गोमूत्र, भस्म, शंख, कषाय, माध्वीक, तिलतैल के समान होता है ।
३.रक्तज स्त्राव – पित्तज स्त्राव लक्षण युक्त एवं अतिदुर्गंधी लक्षण युक्त होता है ।
४.कफज स्त्राव – नवनीत, कासीस, मज्जा, पिष्ट, तिलतैल, नारिकेल जल, शूकर वसा के समान
होता है ।
५.त्रिदोषज स्त्राव – नारिकेल जल, एर्वारूक रस, कांजी, शुद्धजल, आरूकजल, प्रियंगु, फल, यकृत,
मृद्ग यूष सदृश होता है ।
१.त्वक् अधिष्ठानगत स्त्राव – त्वचा में खरोंच, त्वचा का छे दन, त्वक् भेदन एवं त्वक् स्फोट विदीर्ण
होने पर उससे स्वच्छ जल के समान, आमगन्धी, पीताभ स्त्राव होता है ।
२.मांस अधिष्ठानगत स्त्राव – घृत सदृश, सान्द्र, श्वेत, पिच्छिल स्त्राव होता है ।
३.सिरा अधिष्ठानगत स्त्राव – तत्काल सिरा छे दन होने पर अतिरिक्त प्रवृत्ति तथा सिर में पाक होने
पर उससे पूयस्त्राव बूंदों के स्वरूप स्त्रवता रहता है । यह स्त्राव तनु, विच्छिन्न, पिच्छिल, अवलम्बी,
श्याव वर्ण लक्षण सदृश होता है ।
४.स्नायु अधिष्ठानगत स्त्राव – स्निग्ध, घन, सिंघाणक एवं रक्तमिश्रित लक्षण युक्त है ।
९.मर्म अधिष्ठानगत स्त्राव – सिरा, स्नायु, संधि, अस्थि एवं मांस ऐसे प्रकार के स्त्राव के समान होता
है ।
2. Ref.- च.चि.25/28,29
१.लसिका
२.जल
३.पूय
४.रक्त
५.हारिद्र
६.अरूण
७.पिंजर (पीला)
८.कषाय
९.नीला
१०.हरा
११.स्निग्ध
१२.रूक्ष
१३.श्वेत
१४.कृष्ण
व्रण गन्ध :-
1.दोषों के अनुसार व्रण प्राकृत गन्ध :- (सु.सू.28/9)
१.सर्पि
२. तैल
३.वसा
४.पूय
५.रक्त
६.श्याव
७.अम्ल
८.पूतिक
जो व्रण चूर्ण डाले बगैर भी चूर्ण विकीर्ण के समान दिखाई दे ते हैं । वे असाध्य होते हैं ।
व्रण उपद्रव :-
उपद्रवास्तु द्विविधा व्रणस्य व्रणितस्य च ।
(सु.चि. 1/138,139)
२.व्रणित उपद्रव (10) – ज्वर, अतिसार, मूर्च्छा, हिक्का, छर्दि, अरोचक, श्वास, कास, विपाक, तृष्णा
।
व्रण सारांश एवं व्रण चिकित्सा सिद्धांत :-
षण्मूलोऽष्टपरिग्राही पञ्चलक्षणलक्षित: ।
(सु.चि.1/134)
६ कारण, ८ अधिष्ठान और पांच लक्षणों से पहचाने गए व्रण की चिकित्सा निर्दिष्ट ६० उपक्रमों तथा
चतुष्पादों के द्वारा की जाती है ।
1.व्रणमूल (कारण) – ६ है :-
१.वात ४.रक्त
२.पित्त ५.त्रिदोषज
३.कफ ६.आगंतुक
१.त्वक् ५.अस्थि
२.मांस ६.संधि
३.सिरा ७.कोष्ठ
४.स्नायु ८.मर्म
3.व्रण लक्षण – ५ है :-
१.गन्ध ४.वेदना
२.वर्ण ५.आकृति
३.स्त्राव
व्रण चिकित्सा :-
षष्ठी उपक्रम –
(सु.चि.1/8)
(सु.सू.17/22,23)
सर्वप्रथम – विम्लापन, द्वितीय – पूयादि का अवसेचन, तृतीय उपनाह, चतुर्थ - पाटन क्रिया, पञ्चम
– शोधन, षष्ठ – रोपण और सप्तम – विकृतिहरण प्रयोग ये व्रणशोफ के सात उपक्रम हैं ।