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निज व्रण

व्रण की निरूक्ति :-
(1) व्रण गात्रविचूर्णने, व्रणयतीति व्रण: ।
(सु.चि.1/6)
व्रण शब्द गात्र विचूणार्थक व्रण धातु से बना है ।
(2) व्रणगात्र वैवर्ण्य करोतित्यर्थ ।
(डल्हण)
व्रणस्थान का वर्ण उसकी नज़दीकी त्वचा के वर्ण की अपेक्षा विवर्ण (भिन्न) होता है ।

परिभाषा :-
(1) वृणोति यस्माद् रूढे ऽपि व्रणवस्तु न नश्यति ।
आदे ह धारणात्तस्माद व्रण इत्युच्यते बुधै : ।।
(सु.सू.21/40)

जिस स्थान पर घाव हुआ हो वहाँ आच्छादन करने को व्रण कहते है । घाव के भर जाने पर भी दे ह
धारण (जन्म) पर्यन्त जो वहाँ पर व्रणवस्तु (चिन्ह) बन जाता है, वह नष्ट नही होता है, अत एव उसे
भी व्रण कहते है ।
(2) Pathological definition of vrana:-
अत ऊर्ध्वमेतेषावदीर्णानां व्रणभावमापन्नानां षष्ठ: क्रियाकाल: ।

(सु.सू.21/35)

शोफादिकों के अवदीर्ण होकर व्रणावस्था को प्राप्त होने पर जो चिकित्सा की जाती है वह छठा


क्रियाकाल है ।
भेद :-
द्वौ व्रणो भवत: शारीर:, आगन्तुश्च ।

व्रण दो प्रकार के होते है :-

(1) शारीरिक / निज व्रण


(2) आगन्तुक व्रण

व्रण के हेतु :-
(1) शारीरिक व्रण – वात, पित्त, कफ, रक्त एवं सन्निपातज के कारण उत्पन्न होता है ।
(2) आगन्तुक व्रण – पुरूष, पशु, पक्षी, हिंसक जीव तथा सर्प आदि से, गिरने ,दबने, चोट लगने
और अग्नि से, क्षार, विष एवं तीक्ष्ण औषधियों के प्रयोग से, लकड़ी-पत्थर के टु कड़ों से, घड़े
के खप्पर से, सींग से, चक्र, बाण, फरसा, शक्ति, भाला आदि शस्त्रों के अभिघात से उत्पन्न
होता है ।

व्रण के प्रकार :-
(1) शारीरिक / निज व्रण :-
दोष दूषित व्रण संक्षप े त: मुख्य १५ प्रकार के है एवं कुछ आचार्य शुद्ध व्रण का समावेश कर
व्रण के १६ प्रकार बताते हैं ।
१.वातज व्रण
२.पित्तज व्रण
३.कफज व्रण
४.रक्तज व्रण
५.वातपित्तज व्रण
६.वातश्ल़ेष्मज व्रण
७.पित्तश्ल़ेष्मज व्रण
८.वातरक्तज व्रण
९.पित्तरक्तज व्रण
१०.श्ल़ेष्मरक्तज व्रण
११.वातपित्तरक्तज व्रण
१२.वातश्ल़ेष्मरक्तज व्रण
१३.पित्तश्ल़ेष्मरक्तज व्रण
१४.वातपित्तकफज व्रण
१५.वातपित्तरक्तज व्रण
१६.शुद्ध व्रण

(2) आगन्तुक व्रण :-

१.सद्योव्रण – 6 ( छिन्न, भिन्न, विद्ध, क्षत, पिच्चित, घृष्ट )

२.व्रण caused by क्षार, अग्नि, जलौका आदि ।

दोषज व्रण लक्षण ( शारीरिक व्रण )


(1) सामान्य :- इसमें वेदना के लक्षण होते हैं ।
(2) विशेष :- इसमें वातादि दोष प्रकोप के अनुसार लक्षण होते है ।

निज व्रण :- (सु.चि.1/7)


वातज व्रण लक्षण :-

तत्र श्यावारुणाभस्तनु: शीत: पिच्छिलोऽल्पस्त्रावी रूक्ष


चटचटायनशील: स्फुरणायामतोदभेदवेदनाबहुलो निर्मासश्चेति
वातात् ।

वातज व्रण में श्याव अरूण वर्ण, तनु, शीत स्पर्श,पिच्छिल, अल्पस्त्रावी,
रूक्ष, चटचटायनवत् वेदना, स्फुरण, आयाम, तोद, भेद, अबहुल,
अल्पमांसयुक्त लक्षण होते है ।

पित्तज व्रण लक्षण :-

क्षिप्रज पीतनीलाभ: किंशुकोदकाभोष्णस्त्रावी दाहपाकरोग


विकारकारी पीतपिड़काजुष्टश्चेति पित्तात् ।

पित्तज व्रण क्षिप्र, पीत एवं नील वर्ण, पलाशपुष्प को धोने पर निकलने
वाले जल के समान, उष्णस्त्रावी, दाह, पाक, रागयुक्त होकर पीत
पिड़िका युक्त लक्षण होते हैं ।
कफज व्रण :-

प्रततचण्डकण्डू बहुल: स्थूलौष्ठ: स्तब्धसिरास्नायुजालावतत:


कठिनपाण्डु ववभासो मन्दवेदन: शुक्ल शीत सान्द्र पिच्छिलस्त्रावी
गुरूश्चेति कफात् ।

कफज व्रण में नित्य कण्डू , स्थूल औष्ठ, कठिन सिरास्नायूओं के जाल से
बंधा हुआ, पाण्डु वर्ण, मन्द वेदना, शीत, गाढे ़ तथा पिचछिल स्त्राव से
युक्त एवं गुरू लक्षण होते हैं ।

रक्तज व्रण :-

प्रवालदलनिचय प्रकाश:
कृष्णस्फोटपिडकाजालोपचितस्तुरड् ग़स्थानगन्धि: सवेदनो
धूमायनशीलो रक्तस्त्रावीपित्तलिंगश्चेतिरक्तात् ।

रक्तज व्रण में मूंगा के एकत्रित टु कडों के तुल्य वर्ण वाला, काले छाले एवं
फुन्सियों के जाल से भरा हुआ,तीक्ष्ण क्षारगन्धि, वेदनायुक्त,
धूमायनशील, रक्तस्त्राव एवं पित्त के लक्षणों से युक्त होता है ।

वातपित्तज व्रण :-

तोददाहधूमायनप्राय: पीतारूणभस्तद्वर्णस्त्रावी चेति वातपित्ताभ्यां


चुभने की सी पीड़ा, दाह तथा धूमायन, लालिमा लिए हुए पीला और


वात- पित्त के वर्ण के समान स्त्राव वाले लक्षणों से युक्त होता है ।
वातश्ल़ेष्मज व्रण :-

कण्डू यनशील: सनिस्तोदो रूक्षो गुरूर्दारूणो मुहर्मुह:


शीतपिच्छिलऽल्पस्त्रावी चेति वातश्ल़ेष्मभ्यां ।

वातकफज व्रण में कण्डू , तोद, रूक्ष, गुरू, कठिन एवं पुन:पुन:
अल्पस्त्राव ये लक्षण दिखाई दे ते हैं ।

पित्तश्ल़ेष्मज व्रण :-

गुरू सदाह उष्ण: पीतपाण्डु स्त्रावी चेति पित्तश्ल़ेष्मभ्यां ।

पित्तकफज व्रण में गुरू, दाहयुक्त, उष्ण, पीत, पाण्डु वर्ण का स्त्राव होता
है ।

वातरक्तज व्रण :-

रूक्षतनुस्तोदबहुल: सुप्त इव च रक्तारूणाभस्तद्वर्णस्त्रावी चेति


वातशोणिताभ्यां ।

रूक्ष, पतला, अत्यन्त चुभने की सी पीड़ा वाला, सुप्त, रक्त के समान


लालिमायुक्त एवं वातरक्त के वर्ण के तुल्य स्त्राव वाला होता है ।

पित्तरक्तज व्रण :-

घृतमण्डाभो मीनधावनतोयगन्धिर्मृदुविसप्युष्णकृष्णस्त्रावी चेति


पित्तशोणिताभ्यां ।

घृतमण्ड के समान, मछली धोये हुए जल की गन्ध वाला, कोमल, फैलने


वाला, उष्ण और काले स्त्राव वाला होता है
श्लेष्मरकातज व्रण :-

रक्तोगुरू: स्निग्ध: पिच्छिल: कण्डू प्राय: स्थिरो सरक्तपाण्डु स्त्रावी


चेति श्ल़ेष्मशोणिताभ्यां ।

लाल, भारी, लसीला, खुजलीयुक्त, अचल एवं रक्तसहित पीले स्त्राव


वाला होता है ।

वातपित्तरक्तज व्रण :-

स्फुरणतोददाहधूमायन प्राय: पीततनुरक्तस्त्रावी चेति


वातपित्तशोणितेभ्य: ।

फड़कन, चुभने की सी पीड़ा, जलन और धु़ंवा दे ने वाला तथा पीले रंग


के पतले रक्तस्त्राव से युक्त होता है ।

वातश्ल़ेष्मरक्तज व्रण :-

कण्डू स्फुरणचुमचुमायमानप्राय: पाण्डु घनरक्तास्त्रावी चेति


वातश्ल़ेष्मशोणितेभ्यं ।‌

खुजली, फड़कन एवं चुनचुनाहट से युक्त और पीले, गाढ़े रक्तस्त्राव वाला


होता है ।

पित्तश्ल़ेष्मरक्तज व्रण :-

दाहपाकरागकण्डू प्राय: पाण्डु घनरक्तास्त्रावी चेति


पित्तश्ल़ेष्मशोणितेभ्य ।

इस व्रण में प्राय: दाह, पाक, राग एवं कण्डू युक्त, पाण्डु वर्ण घन स्त्राव
होता है ।

वातपित्तकफज व्रण :-

त्रिविध वर्ण वेदना स्त्राव विशेषोपेत: पवनपित्तकफेभ्य ।

इसमें तीनों दोषों के वर्ण, वेदना एवं स्त्राव दिखाई दे ते हैं ।


वातपित्तकफरक्तज व्रण :-

निर्दहननिर्मथनस्फुरणतोददाहपाकराग कण्डू स्वापबहुलो


नानावर्णवेदनास्त्रावविशेषोपेत: पवनपित्तकफशोणितेभ्य: ।
जलने और मथने की तरह पीड़ा वाला, फड़कन, चुभने की सी पीड़ा,
जलन, पाक, लालिमा तथा खुजली से युक्त, अत्यन्त सुप्त, विविध वर्ण
एवं वेदना मिश्रित स्त्राव विशेष वाला होता है ।

शुद्ध व्रण :-

जिह्वातलाभो मृदु: स्निग्ध: श्लक्ष्णो विगतवेदन: सुव्यवस्थितो


निरास्त्रावश्चेति शुद्धो व्रण इति ।

जिह्वा की ऊपरी सतह के समान लाल, कोमल, स्निग्ध एवं चिकना,


वेदनारहित, सुन्दर आकृति वाला स्त्राव रहित होता है ।

त्रिभिर्दोषैरनाक्रान्त: श्यावौष्ठ: पिडकी सम: ।

अवेदनो निरास्त्रावो व्रण शुद्ध इहो उच्यते ।।

(सु.सू.23/18)

जो व्रण वात, पित्त और कफ इन दोषों से आक्रान्त न हो, जिसके औष्ठ श्याव रंग के हों,
जिसमे छोटी-छोटी पिड़कांए दिखाई दे ते हों तथा जिसके सब भाग समान हों एवं वेदना तथा स्त्राव
से रहित हो उसे शुद्ध व्रण कहते हैं ।
आचार्य चरक के अनुसार :-

नातिरक्तोनातीपाण्डु नातिश्यावो न चातिरूक् ।

न चोतसन्नो न चोत्संगी शुद्धो रोप्य: परं व्रणं ।।

(च.चि.25/86)

न अधिक लालवर्ण, न अधिक श्वेतवर्ण, न अधिक श्याव वर्ण, न अधिक पीड़ा, न अधिक उभार तथा
न अधिक उत्संगी ऐसे लक्षणों से युक्त व्रण को चरक ने रोपित व्रण / शुद्ध व्रण कहा है ।

व्रण एवं व्रणशोथ परीक्षा :-


Ref.- च.चि.25/22,23

चरक ने व्रण / व्रणशोथ परीक्षा ३ प्रकार से करने का उपदे श किया है :-

1.दर्शन – रूग्ण की आयु, शरीर वर्ण, व्रण वर्ण, शरीर एवं इंद्रिय परीक्षण, कृशता, स्थूलता,
अधिष्ठान एवं अन्य विकृति आदि का परीक्षण करें ।

2.प्रश्न – व्रण का कारण, व्रणवेदना स्वरूप, सात्मय, असात्मय, जठराग्नि बल आदि का परीक्षण
करें ।

3.स्पर्श – मृदुता, कठोरता, शीत, उष्ण आदि का परीक्षण करें ।

Ref.- सु.सू. 10/14

सुश्रुत ने रोग का संपूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के लिए ६ उपाय बताए हैं :-

1.श्रवणेन्द्रिय – धमनीस्थित शल्य लक्षण में वायु फेनयुक्त रूधिर के साथ आवाज़ करते हुए बाहर
निकलता है ।

2.स्पर्शनेन्द्रिय – ज्वर, शोफ, शीत, उष्णता, स्निग्धता, कर्क शता, मृदु कठिन आदि अवस्थाओं का
ज्ञान होता है
3.चक्षुरेन्द्रिय – शरीर उपचय, अपचय, आयुलक्षण, बल, वर्ण, विकार, पाण्डु , कामला आदि
अवस्थाओं का ज्ञान होता है ।

4.रसनेन्द्रिय – प्रमेहादि व्याधियों में रसज्ञान होता है ।

5.घ्राणेन्द्रिय – अरिष्ट लिंग, व्रणगन्ध आदि का ज्ञान होता है ।

6.प्रश्न – दे श, काल, जाति, सात्मय, आतंक समुत्पत्ति, वेदनास्वरूप, बल, व्याधिकाल प्रकर्ष आदि
का ज्ञान होता है ।

व्रण आकृति :- (सु.सू.22/5)


1.आयात (दीर्घ)

2.चतुरस्त्र (चोकौन)

3.वृत्त (गोल)

4.त्रिपुटक (त्रिकोण)

उपरोक्त ५ आकृतियों के अलावा सभी व्रण आकृति विकृत हैं तथा कृच्छ्रसाध्य है, जैसे – अर्धचन्द्र
एवं स्वस्तिक ।

व्रण वर्ण :- (सु.सू.22/13)


 वातज व्रण – भस्म, कपोत अस्थि सदृश ,परूष, अरूण,कृष्ण वर्ण होता है ।
 रक्तज व्रण एवं पित्तज व्रण – नील, पीत, हरित, श्याव, कृष्ण, रक्त, पिंगल, कपिल वर्ण होता
है ।
 कफज व्रण – श्वेत, स्निग्ध एवं पाण्डु वर्ण होता है ।
 त्रिदोषज व्रण – वर्ण तीनों दोषों का मिश्रित वर्ण होता है ।
 कृष्ण, कुंकुम एवं कंकुष्ठ के समान वर्ण होना यह पित्त प्रकोप का लक्षण है । यह व्रण
असाध्य है ।
व्रण स्त्राव :-
1.Ref.- सु.सू.22/9

(अ) दोषों के अनुसार व्रणस्त्राव लक्षण :-

१.वातज स्त्राव – परूष, श्याव, अवश्याय, दधि, मस्तु, क्षारोदक, मांसधावन, पुलाकदोक के समान
होता है ।

२.पित्तज स्त्राव – गोमेद, गोमूत्र, भस्म, शंख, कषाय, माध्वीक, तिलतैल के समान होता है ।

३.रक्तज स्त्राव – पित्तज स्त्राव लक्षण युक्त एवं अतिदुर्गंधी लक्षण युक्त होता है ।

४.कफज स्त्राव – नवनीत, कासीस, मज्जा, पिष्ट, तिलतैल, नारिकेल जल, शूकर वसा के समान
होता है ।

५.त्रिदोषज स्त्राव – नारिकेल जल, एर्वारूक रस, कांजी, शुद्धजल, आरूकजल, प्रियंगु, फल, यकृत,
मृद्ग यूष सदृश होता है ।

(आ) अधिष्ठान के अनुसार व्रण स्त्राव :- (सु.सू.22/8)

१.त्वक् अधिष्ठानगत स्त्राव – त्वचा में खरोंच, त्वचा का छे दन, त्वक् भेदन एवं त्वक् स्फोट विदीर्ण
होने पर उससे स्वच्छ जल के समान, आमगन्धी, पीताभ स्त्राव होता है ।

२.मांस अधिष्ठानगत स्त्राव – घृत सदृश, सान्द्र, श्वेत, पिच्छिल स्त्राव होता है ।

३.सिरा अधिष्ठानगत स्त्राव – तत्काल सिरा छे दन होने पर अतिरिक्त प्रवृत्ति तथा सिर में पाक होने
पर उससे पूयस्त्राव बूंदों के स्वरूप स्त्रवता रहता है । यह स्त्राव तनु, विच्छिन्न, पिच्छिल, अवलम्बी,
श्याव वर्ण लक्षण सदृश होता है ।

४.स्नायु अधिष्ठानगत स्त्राव – स्निग्ध, घन, सिंघाणक एवं रक्तमिश्रित लक्षण युक्त है ।

५.अस्थि अधिष्ठानगत स्त्राव – शुक्ति के समान स्त्राव होता है ।

६.मज्जा अधिष्ठानगत स्त्राव – मज्जा एवं रक्तमिश्रित तसेच स्निग्ध होता है ।


७.सन्धि अधिष्ठानगत स्त्राव – सन्धि स्थानगत व्रण से पीडन करने पर स्त्राव निकलता । अपितु
आकुंचन, प्रसारण, उन्नमन, विनमन, प्रधावन, उत्कासन, प्रवाहण करने पर पिच्छिल, अवलम्बी
रक्तमिश्रित स्त्राव रहता है ।

८.कोष्ठ अधिष्ठानगत स्त्राव – रक्त, मूत्र, पुरीष, जल का स्त्राव होता है ।

९.मर्म अधिष्ठानगत स्त्राव – सिरा, स्नायु, संधि, अस्थि एवं मांस ऐसे प्रकार के स्त्राव के समान होता
है ।

असाध्य स्त्राव लक्षण :-

पक्वाशय – से पुलाकोदक सदृश स्त्राव ।

रक्ताशय – से क्षारोदक सदृश स्त्राव ।

आमाशय – में से कलाय सदृश स्त्राव ।

त्रिकसंधि – में से कलाय सदृश स्त्राव ।

2. Ref.- च.चि.25/28,29

आचार्य चरक ने व्रण स्त्रावण के १४ प्रकार वर्णन किए हैं :-

१.लसिका

२.जल

३.पूय

४.रक्त

५.हारिद्र

६.अरूण

७.पिंजर (पीला)
८.कषाय

९.नीला

१०.हरा

११.स्निग्ध

१२.रूक्ष

१३.श्वेत

१४.कृष्ण

व्रण गन्ध :-
1.दोषों के अनुसार व्रण प्राकृत गन्ध :- (सु.सू.28/9)

दोष प्राकृत गन्ध


वात कटु
पित्त तीक्ष्ण
कफ विस्त्र
रक्त लोह
त्रिदोष संमिश्र
वात-पित्त लाजा
वात-कफ अतसी
पित्त-कफ तैलगन्ध
द्वं दज व्रण किंचित आम
गन्धि

2. च.चि.25/27 :- 8 व्रण गन्ध है :-

१.सर्पि

२. तैल
३.वसा

४.पूय

५.रक्त

६.श्याव

७.अम्ल

८.पूतिक

व्रण स्वरूप विकृति :- ( सु.सु.28/9)


व्रण रूप शक्ति, पताका, रथ, भाला, घोड़ा, हाथी, गाय, बैल, राजप्रासाद आकृति सदृश स्वरूप है, वे
व्रण असाध्य है ।

जो व्रण चूर्ण डाले बगैर भी चूर्ण विकीर्ण के समान दिखाई दे ते हैं । वे असाध्य होते हैं ।

व्रण स्पर्श विकृति :- (सु.सू.28/17)


जो व्रण मर्म अधिष्ठानगत न होने पर भी अधिक पीड़ादायी होता है, भीतर से दाह करता है और
बाहर से शीत है । बाहर से दाह करता है और भीतर से शीत है, वह असाध्य होता है ।

व्रण शब्द विकृति :- (सु.सू.28/16)


जिस व्रण में खटखट, घुर्घुर शब्द आता है, जिसमे अधिक दाह, त्वक् एवं मांसस्थित एवं सशब्द वायु
बाहर आती है, वह असाध्य होता है ।

व्रणवस्तु / व्रणाशय / व्रणस्थान :-

सुश्रुत (व्रण वस्तु) वाग्भटृ (व्रण आशय) चरक (व्रण स्थान)


त्वक् त्वक् त्वक्
मांस मांस मांस
सिरा सिरा सिरा
स्नायु स्नायु स्नायु
अस्थि अस्थि अस्थि
संधि संधि मेद
कोष्ठ कोष्ठ अन्तराश्रय
मर्म मर्म मर्म

व्रण उपद्रव :-
उपद्रवास्तु द्विविधा व्रणस्य व्रणितस्य च ।

तत्र गन्धादय: पञ्च व्रणस्योपद्रवा: स्मृता: ।

ज्वरातिसारौ मूर्च्छा च हिक्का च्छर्दिररोचक: ।

श्वासकासाविपाकाश्च तृष्णा च व्रणितस्य तु ।।

(सु.चि. 1/138,139)

सुश्रुत ने व्रण उपद्रव वर्णन का २ प्रकार विभाजन किया है :-

१.व्रण उपद्रव (5) – आकृति, स्त्राव, गन्ध, वर्ण, वेदना

२.व्रणित उपद्रव (10) – ज्वर, अतिसार, मूर्च्छा, हिक्का, छर्दि, अरोचक, श्वास, कास, विपाक, तृष्णा

व्रण सारांश एवं व्रण चिकित्सा सिद्धांत :-

षण्मूलोऽष्टपरिग्राही पञ्चलक्षणलक्षित: ।

षष्ट्या विधानैर्निर्दिष्टैश्चतुर्भि: साध्यते व्रण: ।।

(सु.चि.1/134)

६ कारण, ८ अधिष्ठान और पांच लक्षणों से पहचाने गए व्रण की चिकित्सा निर्दिष्ट ६० उपक्रमों तथा
चतुष्पादों के द्वारा की जाती है ।

1.व्रणमूल (कारण) – ६ है :-

१.वात ४.रक्त

२.पित्त ५.त्रिदोषज

३.कफ ६.आगंतुक

2.व्रण परिग्राही (अधिष्ठान) – ८ है :-

१.त्वक् ५.अस्थि

२.मांस ६.संधि

३.सिरा ७.कोष्ठ

४.स्नायु ८.मर्म

3.व्रण लक्षण – ५ है :-

१.गन्ध ४.वेदना

२.वर्ण ५.आकृति

३.स्त्राव
व्रण चिकित्सा :-
षष्ठी उपक्रम –

तस्य व्रणस्य षष्टिरूपक्रमा भवन्ति ।

तद्यथा – अपतर्पणमालेप: परिषेकोऽभ्यड् ग़ स्वेदो विम्लापनमुपनाह: पाचनं विस्त्रावणं स्नेहो


वमनं विरेचनं छे दनं भेदनं दारणं लेखनमेषणमाहरणं व्यधनं विद्रावणं सीवनं सन्धानं पीडनं
शोणितास्थापनं निर्वापणमुत्कारिका कषायो वर्ति: कल्क: सर्पिस्तैलं रसक्रियाऽवचूर्णनं
व्रणधूपनमुत्सादनमवसादनं मृदुकर्म दारूणकर्म क्षारकर्माग्निकर्म कृष्णकर्म पाण्डु कर्म
प्रतिसारणं रोमसञ्जननं लोमापहरणं बस्तिकर्मोत्तरबस्तिकर्म बन्ध: पत्रदानं कृमिघ्नं बृंहणं
विषघ्नं शिरोविरेचनं नस्यं कवलधारणं धूमो मधु सर्पिर्यन्त्रमाहारो रक्षाविधानमिति ।।

(सु.चि.1/8)

व्रण शोफ की चिकित्साओं के सात उपक्रम :-

आदौ विम्लापनं कुर्याद् द्वितीयवसेचनम् ।

तृतीयमुपनाहञ्च चतुर्थिं पाटनक्रगयाम् ।।

पञ्चमं शोधनं कुर्यात् षष्ठं रोपणमिष्यते ।

ऐते क्रमा व्रणस्योक्ता: सप्तमं वैकृतापहमृ ।।

(सु.सू.17/22,23)

सर्वप्रथम – विम्लापन, द्वितीय – पूयादि का अवसेचन, तृतीय उपनाह, चतुर्थ - पाटन क्रिया, पञ्चम
– शोधन, षष्ठ – रोपण और सप्तम – विकृतिहरण प्रयोग ये व्रणशोफ के सात उपक्रम हैं ।

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